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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासपद्मप्रभचरित की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि यह गच्छ तपागच्छ चैत्रगच्छीय भुवनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य और विद्याधरगच्छ की एक शाखा था।२५
देवभद्रसूरि के शिष्य जगच्चन्द्रसूरि को आघाट में उग्र तप करने इस गच्छ से संबद्ध कळ अभिलेखीय साक्ष्य भी मिलते हैं के कारण वि.सं. १२८५/ई. सन् १२२९ में 'तपा' विरुद्ध प्राप्त जो वि.सं. १२१३ से वि.सं. १४२३ तक के हैं।२६ ग्रन्थ प्रशस्तियों हुआ, इसा
हुआ, इसी कारण उनकी शिष्य-संतति तपागच्छीय कहलाई।७ और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के मुनिजनों
अपने जन्म से लेकर आज तक इस गच्छ की अविच्छिन्न परंपरा
से के गुरु परंपरा की एक तालिका बनती है, जो इस प्रकार है--
विद्यमान है और इसका प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है।
इस गच्छ में अनेक प्रभावक आचार्य और विद्वान् मुनिजन हो बालचन्द्रसूरि
चुके हैं और आज भी हैं। इस गच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में
साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त होते हैं,जिनका सम्यक् गुणभद्रसूरि (वि.सं. १२२६ की नन्दीदर्गपदवृत्ति में उल्लिखित)
अध्ययन आवश्यक है। अन्य गच्छों की भाँति इस गच्छ की भी
कई अवान्तर शाखाएँ अस्तित्व में आईं, जैसे--वृद्धपोषालिक, सर्वाणंदसूरि (पार्श्वनाथचरित-अनुपलब्ध के रचनाकार)
लघुपोषालिक, विजयाणंदसूरिशाखा, विमलशाखा,
विजयदेवसूरिशाखा, सागरशाखा, रत्नशाखा, कमलकलशशाखा, धर्मघोषसूरि
कुतुबपुरा शाखा, निगम शाखा आदि।२८
थारापद्रगच्छ प्राक्मध्ययुगीन और मध्ययुगीन निर्ग्रन्थधर्म देवसूरि (वि.सं. १२५४/ई. सन् १९९८ में पद्मप्रभचरित के के श्वेताम्बर आम्नाय के गच्छों में इस गच्छ का महत्त्वपूर्ण रचनाकार)
स्थान है। थारापद्र (वर्तमान थराद, बनासकाँठा मंडल उत्तर
गुजरात) नामक स्थान से इस गच्छ का प्रादुर्भाव हुआ। इस हरिभद्रसूरि (वि.सं. १२९६/ई. सन् १२४० प्रतिमालेख-घोघा) । गच्छ में ११ वीं शती के प्रारंभ में हुए आचार्य पूर्णभद्रसूरि ने
वटेश्वर क्षमाश्रमण को अपना पूर्वज बतलाया है। परंतु इस गच्छ
के प्रवर्तक कौन थे, यह गच्छ कब अस्तित्व में आया, इस बारे हरिप्रभसूरि
चन्द्रसूरि में वे मौन हैं। इस गच्छ में ज्येष्ठाचार्य, शांतिभद्रसूरि प्रथम,
शीलभद्रसूरि प्रथम, सिद्धान्तमहोदधि सर्वदेवसूरि आदि अनेक विबुधप्रभसूरि (वि.सं. १३९२ प्रतिमालेखा)
प्रभावक और विद्वान आचार्य हुए हैं। षडावश्यकवृत्ति (रचनाकाल
वि.सं. ११२२) और काव्यालंकारटिप्पण के कर्ता नमिसाधु ललितप्रभसूरि (वि.सं. १४२३/ई. सन् १३६७ प्रतिमालेख) इसी गच्छ के थे। इस गच्छ से संबद्ध अभिलेखीय साक्ष्य भी जीरापल्लीगच्छ राजस्थान प्रांत के अर्बुदमंडल के अंतर्गत
पर्याप्त संख्या में प्राप्त हुए हैं, जो वि.सं. १०११ से वि.सं. १५३६ जीरावला नामक प्रसिद्ध स्थान है। यहाँ पार्श्वनाथ का एक महिम्न ।
तक के हैं। इस प्रकार इस गच्छ का अस्तित्व प्रायः १६वीं शती के जिनालय विद्यमान है जो जीरावला पार्श्वनाथ के नाम से जाना
मध्य तक प्रमाणित होता है। चूंकि इसके पश्चात् इस गच्छ से संबद्ध जाता है। बृहद्गच्छ पट्टावली में उसकी एक शाखा के रूप में इस
साक्ष्यों का अभाव है। अत: यह माना जा सकता है कि उक्त गच्छ का उल्लेख मिलता है। जीरावला नामक स्थान से संबद्ध काल
सन काल के बाद इस गच्छ का अस्तित्व समाप्त हो गया होगा। होने के कारण यह शाखा जीरापल्लीगच्छ के नाम से प्रसिद्ध देवानन्दगच्छ देवानन्दसूरि इस गच्छ के प्रवर्तक माने हुई। इस गच्छ से संबद्ध कई प्रतिमालेख मिलते हैं जो वि.सं. जाते हैं। श्री अगरचंद नाहटा के अनुसार वि.सं. ११९४ और १४०६ से वि.सं. १५१५ तक के हैं। इसके संबंध में विशेष वि.सं. १२०१ की ग्रन्थ-प्रशस्तियाँ में इस गच्छ का उल्लेख अध्ययन अपेक्षित है।
मिलता है।३० श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई और श्री लालचंद
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