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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्ध - इतिहास-- ग्रन्थों के रचनाकार, सुल्तान मुहम्मद तुगलक के प्रतिबोधक भावडारगच्छ, पूर्णिमागच्छ आदि कई गच्छ चन्द्रकुल से ही शासनप्रभावक आचार्य जिनप्रभसूरि इसी शाखा के थे। वि.सं. अस्तित्व में आए। इस गच्छ से संबद्ध कई प्रतिमालेख मिलते को १८वीं शती तक इस शाखा का अस्तित्व रहा।
हैं, जो वि.सं. १०७२ से वि.सं. १५५२ तक के हैं। मुनिपतिचरित्र ४. बेगड़ शाखा-- विसं. १४२२ में यह शाखा अस्तित्व
(रचनाकाल वि.सं. १००५) एवं जिनशतक काव्य (रचनाकाल में आई। जिनेश्वरसूरि इस शाखा के प्रथम आचार्य हुए।
वि.सं. १०२५) के रचियता जम्बूकवि अपरनाम जम्बूनाग इसी
गच्छ के थे। सनत्कुमारचरित के रचनाकार चन्द्रसूरि भी इसी ५. पिप्पलक शाखा-- वि.सं. १४७४ में जिनवर्धनसूरि
गच्छ के थे। इसी गच्छ के शिवप्रभसूरि के शिष्य श्रीतिलकसूरि द्वारा इस शाखा का उदय हुआ। श्री नाहटा के अनुसार पिप्पलक
ने वि.सं. १२६१ में प्रत्येक बुद्धचरित की रचना की। वसन्तविलास नामक स्थान से संबद्ध होने से इसे पिप्पलक शाखा के नाम से
के रचनाकार बालचन्द्रसूरि, प्रसिद्ध ग्रन्थसंशोधक प्रद्युम्नसूरि, जाना गया।
शीलवतीकथा के रचनाकार उदयप्रभसरि इसी गच्छ के थे।२३ इसी नाम की एक शाखा वडगच्छीय शांतिसूरि के शिष्य इस गच्छ के संबंध में विशेष विवरण अन्वेषणीय है। महेन्द्रसरि, विजयसिंसरि आदि के द्वारा वि.सं. ११८१/ई. सन्
चैत्रगच्छ मध्ययुगीन श्वेताम्बर गच्छों में चैत्रगच्छ भी एक ११२५ में अस्तित्व में आई।
हैं। चैत्रपुर नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। ६. आद्यपक्षीय शाखा-- वि.सं. १५६४ में आचार्य इस गच्छ के कई नाम मिलते हैं यथा--चैत्रवालगच्छ, जिनदेवसूरि से यह शाखा अस्तित्व में आई। इस शाखा की एक चित्रवालगच्छ, चित्रपल्लीयगच्छ, चित्रगच्छ आदि। धनेश्वरसूरि गद्दी पाली में थी।
इस गच्छ के आदि आचार्य माने जाते हैं। इनके पट्टधर ७. भावहर्षीया शाखा--वि.सं. १६२१ में भावहर्षसरि भुवनचन्द्रसूरि हुए जिनके प्रशिष्य और देवभद्रसूरि के शिष्य से इसका उदय हुआ। इस शाखा की एक गद्दी बालोतरा में है। जगच्चन्द्रसूरि से वि.सं.१२८५ ई. सन् १२२९ में तपागच्छ का
प्रादुर्भाव हुआ। देवभद्रसूरि के अन्य शिष्यों से चैत्रगच्छ की ८. लघुआचार्य शाखा-- आचार्य जिनसागरसूरि से
अविच्छिन्न परंपरा जारी रही। सम्यक्त्वकौमुदी (रचनाकाल वि.सं. वि.सं. १६८६ में यह शाखा अस्तित्व में आई। इसकी गद्दी
१५०४/ई. सन् १४४८) और भक्तामरस्तवटीका के रचनाकार बीकानेर में विद्यमान है।
गुणाकरसूरि इसी गच्छ के थे।२४ ९. जिनरंगसूरि शाखा-- वि.सं. १७०० में जिनरंगसूरि
चैत्रगच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में अभिलेखीय साक्ष्य से प्रारंभ हुई। इसकी गद्दी वर्तमान में लखनऊ में है।
प्राप्त होते हैं, जो वि.सं. १२६५ से वि.सं. १५९१ तक के हैं। इस १०. श्रीसारीयशाखा-- वि.सं. १७०० के लगभग यह गच्छ से कई अवान्तर शाखाओं का जन्म हुआ, जैसे--भर्तृपुरीय शाखा अस्तित्व में आई, परंतु शीघ्र ही नामशेष हो गई।
शाखा, धारणपद्रीयशाखा, चतुर्दशीयशाखा, चान्द्रसामीय शाखा, ११. मंडोवरा शाखा-- जिनमहेन्द्रसरि, द्वारा वि.सं. सलषणपुरा शाखा, कम्बाइयाशाखा, अष्टापदशाखा, शार्दुलशाखा १८९२ में मंडोवरा नामक स्थान से इसका उदय हुआ। इसकी आदि। एक गद्दी जयपुर में विद्यमान है।
जाल्योधरगच्छ विद्याधरगच्छ की द्वितीय शाखा के रूप श्रीअगरचंद नाहटा और श्री भंवरलाल नाहटा ने इस गच्छ में इस गच्छ का उदय हुआ। यह शाखा कब और किस कारण के साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों का न केवल संकलन अस्तित्व में आई ? इसके पुरातन आचार्य कौन थे? साक्ष्यों के
और प्रकाशन किया है, अपित उनका सम्यक अध्ययन भी अभाव में ये प्रश्न अनुत्तरित हैं। इस गच्छ से संबद्ध मात्र दो समाज के सम्मुख रखा है।
प्रशस्तियाँ--नन्दिपददुर्गवृत्ति की दाताप्रशस्ति (प्रतिलेखनकाल
-वि.सं. १२२६/ई. सन् १९६०) और पद्मप्रभचरित (रचनाकाल चन्द्रगच्छ चन्द्रकुल ही आगे चलकर चन्द्रगच्छ के नाम
- वि.सं. १२५४ ई. सन् ११९८) की प्रशस्ति ही मिलती है। से प्रसिद्ध हुआ। राजगच्छ, वडगच्छ, खरत गच्छ, पूर्णतल्लगच्छ,
महा
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