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________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य विकाल अर्थात् अपराह्न में किया गया। इसीलिए इस सूत्र का -- गंधार, श्रावक, तोसलिपुत्र, स्थूलभद्र, कालक, स्कन्दपुत्र, नाम दशवैकालिक रखा गया। इस सूत्र की रचना मनक नामक पराशरऋषि, करकण्डु आदि प्रत्येकबुद्ध एवं हरिकेश मृगापुत्र शिष्य के हेतु आचार्य शयम्भव ने की।४२ दशवैकालिक में। आदि की कथाओं का संकेत है। इसके अतिरिक्त निह्नव, भद्रबाहु द्रुमपुष्पिका आदि दस अध्ययन हैं। के चार शिष्यों एवं राजगृह के वैमार पर्वत की गुफा में शीतपरीषहों प्रथम अध्ययन में धर्म की प्रशंसा करते हए उसके लौकिक से एवं मच्छरों के घोर उपसर्ग से कालगत होने का भी वर्णन है। और लोकोत्तर ये दो भेद एवं उसके अवान्तर भेदों को बताया। इसमें अनेक उक्तियाँ सक्तों के रूप में हैं। जैसे -- "भावाम्मिउ गया है।४३ द्वितीय अध्ययन में धृति की स्थापना की गई है। पव्वज्जा आरम्भपरिग्गहच्चाओ५५ अर्थात् हिंसा व परिग्रह का तृतीय अध्ययन५ में क्षुल्लकाचार अर्थात् लघु-आचार कथा त्याग ही भावप्रव्रज्या है। काव्यात्मक एवं मनोहारी स्थलों का का अधिकार है। चौथे अध्ययन ६ में आत्मसंयम के लिए भा अभाव इस नियुक्ति में नहीं है। जैसे-- षड्जीवरक्षा का उपदेश दिया गया है। पिण्डषणा नामक पंचम अयिरुग्गयए सूरिए अध्ययन की नियुक्ति में आचार्य ने "पिण्ड" और "एषणा" चइयथूम गय वायसे इन दो पदों की निक्षेपरूप से व्याख्या करते हुए भिक्षाविशुद्धि के भित्ती गमए व आपने विषय में विशद विवेचना की है। छठे अध्ययन में वृहद् आचार कथा का प्रतिपादन है। सप्तम अध्ययन ९ वचन विभक्ति का सहि सुहिओ हु जणो न वुज्झई।५६ अधिकार है। अष्टम अध्ययन प्राणिधान अर्थात् विशिष्ट चित्तधर्म अर्थात् 'सूर्य का उदय हो चुका है, चैत्यस्तम्भ पर बैठसम्बन्धी है। नवम अध्ययन में विनय का एवं दसवें५२ अध्ययन बैठ कर काग बोल रहे हैं. सर्य का प्रकाश दीवारों पर चढ गया है में भिक्ष का अधिकार है। इन अध्ययनों के अतिरिक्त इस सूत्र किन्त फिर भी हे सखि । यह अभी सो ही रहे हैं।' में दो चूलिकाएँ हैं - प्रथम चूलिका में संयम में स्थिरीकरण का और दूसरी में विवत्तचर्या का वर्णन है। दशवैकालिकनियुक्ति ४. आचारांगनियुक्ति पर अनेक टीकाएँ एवं चूर्णि लिखी गई हैं, जिनमें उत्तराध्ययननियुक्ति के पश्चात् एवं सूत्रकृतांगनियुक्ति के । जिनदासगणिमहत्तर की चूर्णि अधिक प्रसिद्ध है। पूर्व रचित यह नियुक्ति आचारांगसूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों पर है। ३. उत्तराध्ययननियुक्ति इसमें ३४७ गाथाएँ हैं। आचारांगानियुक्ति के प्रारम्भ में मंगलगाथा है, जिसमें सर्वसिद्धों को नमस्कार कर इसकी रचना करने की दशवैकालिक की भाँति इस नियुक्ति में भी अनेक प्रतिज्ञा. संज्ञा और दिशा का निक्षेप किया गया है। पारभाषिक शब्दों की निक्षेपदृष्टि से व्याख्या की गई है। आचारांग का प्रवर्तन सभी तीर्थकरों ने तीर्थ-प्रवर्तन के इसमें ६०७ गाथाएँ हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान जिनेन्द्र आदि में किया एवं शेष ग्यारह अंगों का आनुपूर्वी से निर्माण आदि में किया एवं शेष ग्याद्ध अंगों का . के उपदेश ३६ अध्ययनों में संग्रहीत हैं। उत्तराध्ययन के "उत्तर" । हुआ ऐसा आचार्य का मत है। आचारांग द्वादशांगों में प्रथम पद का अर्थ क्रमोत्तर बताकर अध्ययन पद का अर्थ बताते हुये क्यों है, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि इसमें मोक्ष के कहा गया है कि जिससे जीवादि पदार्थों का अधिगम अर्थात् उपाय का प्रतिपादन किया गया है, जो कि सम्पूर्ण प्रवचन का सार परिच्छेद होता है या जिससे शीघ्र ही अभीष्ट अर्थ की सिद्धि होती है।९। अंगों का सार आचारांग है, आचारांग का सार अव्याबाध है, है, वही अध्ययन है। चूँकि अध्ययनसे अनेक भवों से आते हुये जो साधक का अन्तिम ध्येय है। आचारांग में नौ ब्रह्ममचर्याभिधायी कर्मरज का क्षय होता है, इसलिएउसेभावाध्ययन कहते हैं। इसके अध्ययन, अठारह हजार पद एवं पाँच चूड़ाएँ है।। पश्चात् आचार्य ने श्रुतस्कंध ५४ का निक्षेप करते हुए विनयश्रुत, नौ अध्ययनों में प्रथम का अधिकार जीव संयम है, द्वितीय परीषह, चतुरंगीय, असंस्कृत आदि छत्तीस अध्ययनों की विवेचना की है। इस नियुक्ति में शिक्षाप्रद कथानकों की बहुलता है। जैसे का कर्मविजय, तृतीय का सुख-दुःखतितिक्षा, चतुर्थ का सम्यक्त्व की दृढ़ता पंचम का लोकसाररत्नत्रयाराधना, षष्ठ का नि:संगता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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