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- यतीन्द्र सूरिस्मारकगन्ध-जैन आगम एवं साहित्य - - ये प्रतिक्रमण के पर्याय हैं। प्रतिक्रमण पर तीन दृष्टियों से ने कायोत्सर्ग के भेद, परिमाण, गुण, ध्यान का स्वरूप एवं विचार किया गया है - (१) प्रतिक्रमणरूप क्रिया, (२) प्रतिक्रमण भेद३५, कायोत्सर्ग के विविध-अतिचार शुद्धि-उपाय, शठ एवं का कर्ता अर्थात् प्रतिक्रामक और (३) प्रतिक्रमितव्य अशुभयोग अशठ द्वार,कायोत्सर्ग की विधि२७, घोटकलत आदि उन्नीस रूप कर्म। जीव पापकर्मयोगों का प्रतिक्रामक है। इसलिए जो दोष, कायोत्सर्ग के अधिकारी एवं कायोत्सर्ग के परिणाम ध्यान आदि प्रशस्त योग हैं, उनका साधु को प्रतिक्रमण नहीं की विस्तृत विवेचना की है। करना चाहिए। प्रतिक्रमण, दैवसिक, रात्रिक, इत्वरिक,
प्रत्याख्यान - आवश्यक सूत्र का षष्ठ अध्ययन प्रत्याख्यान के यावत्कथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, उत्तमार्थक आदि
रूप में है। आचार्यभद्रबाहु ने प्रत्याख्यान का निरूपण छः अनेक प्रकार का होता है। पंचमहाव्रत, रात्रिभुक्तिविरति,
दृष्टियों में किया है। (१) प्रत्याख्यान, (२) प्रत्याख्याता, (३) भक्तपरिज्ञा आदि ऐसे प्रतिक्रमण हैं, जो यावत्कायिक या जीवन
प्रत्याख्येय, (४) पर्षद, (५) कथनिविधि एवं (६) फल।१०
र भर के लिए हैं। सामान्यतः उच्चार-मूत्र, कफ, नसिकामल,
प्रत्याख्यान के छः भेद है - (१) नामप्रत्याख्यान, (२) आभोग- अनाभोग, सहसाकार आदि क्रियाओं के उपरान्त
स्थापनाप्रत्याख्यान, (३) द्रव्यप्रत्याख्यान, (४) प्रतिक्रमण आवश्यक है। इसके अतिरिक्त इस अध्ययन में
आदित्साप्रत्याख्यान, (५) प्रतिषेधप्रत्याख्यान एवं (६) आचार्य ने प्रतिषिद्ध विषयों का आचरण करने, विहित विषयों
भावप्रत्याख्यान। प्रत्याख्यान से आस्रव का निरुन्धन एवं समता का आचरण न करने, जिनोक्त वचनों में श्रद्धा न रखने तथा ।
की सरिता में अवगाहन होता है। प्रत्याख्यातव्य, द्रव्य व भाव विपरीत प्ररूपणा करने पर प्रतिक्रमण करने का निर्देश देते हुए
रूप से दो प्रकार का होता है। अशनादि का प्रत्याख्यान प्रथम आलोचना निरपलाप आदि बत्तीस योगों की चर्चा की है।३१
द्रव्यप्रत्याख्यान है एवं अज्ञानादि का प्रत्याख्यान भावप्रत्याख्यातव्य तदनन्तर अस्वाध्यायिक की नियुक्ति, अस्वाध्याय के भेद
है। प्रत्याख्यान के अधिकारी को बताते हुए आचार्य ने कहा कि प्रभेद एवं तज्जनित परिणामों की चर्चा की गई है।
प्रत्याख्यान का वही अधिकारी है जो विनीत एवं अव्यक्षिप्तरूप कायोत्सर्ग - यह आवर का पुत्र का पाँचवाँ अध्ययन है। हो। अन्त में प्रत्याख्यान के फल की विवेचना की गई है। कायोत्सर्ग की नियुक्ति करन क पूर्व आचार्य ने प्रायश्चित्त के
आवश्यकनियुक्ति के इस विस्तृत विवेचन से सहज ही आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल,
अनुमान लगाया जा सकता है कि जैननियुक्ति ग्रन्थों में अनवस्थाप्य और पारांचिक इन दस भेदों का निरूपण किया है।
आवश्यकनियुक्ति का कितना महत्त्व है। श्रमणजीवन की साल कायोत्सर्ग एवं व्युत्सर्ग एकार्थक है। यहाँ कायोत्सर्ग का अर्थ
साधना के लिए अनिवार्य सभी प्रकार के विधि-विधानों का व्रणचिकित्सा है जो कायोत्थ और परोत्थ दो प्रकार की होती है।
संक्षिप्त, सुव्यवस्थित एवं मर्मस्पर्शी निरूपण आवश्यकनियुक्ति जैसा वण होता है. वैसी ही उसकी चिकित्सा होती है। कायोत्सर्ग की एक बहत बड़ी विशेषता है। में दो पद है - काय और उत्सर्ग। काय का निक्षेप बारह प्रकार से किया गया है। ये हैं -- (१) नाम, (२) स्थापना, (३) शरीर, २. दशवैकालिकनियुक्ति (४) गति, (५) निकाय, (६) आस्तिकाय, (७) द्रव्य, (८) इस नियुक्ति के आरम्भ में आचार्य ने सर्वसिद्धों को नमस्कार मातृका, (९) संग्रह, (१०) पर्याय, (११) भार एवं (१२) भाव। करके इसकी रचना की प्रतिज्ञा की है।४१ "दश' और "काल" उत्सर्ग का निक्षेप -- (१) नाम, (२) स्थापना (३) द्रव्य, (४) इन दो पदों से सम्बन्ध रखने वाले दशवकालिक की निक्षेपक्षेत्र, (५) काल और (६) भाव रूप से छः प्रकार का है। पद्धति से व्याख्या करते हए आचार्य ने बताया है कि "दश" का कायोत्सर्ग के चेष्टाकायोत्सर्ग एवं अभिभवकायोत्सर्ग नामक दो प्रयोग इसलिए किया गया है क्योंकि इसमें "दस" अध्ययन हैं विधान है। भिक्षाचर्या आदि में होने वाला चेष्टाकायोत्सर्ग एवं एवं "काल" का प्रयोग इसलिए है कि इस सत्र की रचना उस उपसर्ग आदि में होने वाला अभिभवकायोत्सर्ग है।३२ अभिभव समय हुई जबकि पौरुषी व्यतीत हो चकी थी अथवा जो दस कायोत्सर्ग की काल-मर्यादा अधिकतम एक वर्ष एवं न्यूनतम अध्ययन पर्वो से उदधत किए गए उनका सव्यवस्थित निरूपण अन्तर्मुहूर्त है। इसके अतिरिक्त इस अध्ययन में नियुक्तिकार సందరయతరగentertainmenor 90 రురరరరరరరరరరరmand
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