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--- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य नियुक्तिगाथाओं की तो और भी विचित्र स्थिति है। नियुक्ति दुविहो लोगुत्तरिओ सुअधम्मो खलु चरित्तधम्मो । की ऐसी अनेक गाथाएँ हैं जो हरिभद्र की टीका में तो हैं किन्तु सुअधम्मो सज्झाओ चरित्तधम्मो समणधम्मो।।43।। चूर्णियों में नहीं मिलती। हाँ, इनमें कुछ गाथाएँ ऐसी अवश्य हैं यह गाथा अर्थरूप से तो दोनों ही चूर्णियों में हैं, किन्तु जिनका चर्णियों में अर्थ अथवा आशय दे दिया गया है किन्तु गाथारूप से अधुरी या पूरी एक में भी नहीं है। जिन्हें गाथाओं के रूप में उद्धृत नहीं किया गया है। दूसरी बात
इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों चूर्णिकारों और टीकाकार यह है कि चूर्णियों में अधिकांश गाथाएँ पूरी की पूरी नहीं दी
हरिभद्र ने नियुक्ति-गाथाएँ समान रूप से उद्धृत नहीं की है। जाती हैं, अपितु प्रारंभ में कुछ शब्द उद्धृत कर केवल उनका
दोनों चूर्णिकारों में एतद्विषयक काफी समानता है, जबकि हरिभद्रसूरि निर्देश दिया जाता है। कुछ ही गाथाएँ ऐसी होती हैं जो पूरी
इन दोनों से इस विषय में बहुत भिन्न हैं। इस विषय पर अधिक उद्धृत की जाती हैं। हम यहां हरिभद्र की टीका में उपलब्ध कुछ
प्रकाश डालने के लिए विशेष अनशीलन की आवश्यकता है। नियुक्ति गाथाएँ उद्धृत कर यह दिखाने का प्रयत्न करेंगे कि उमें से कौन सी दोनों चूर्णियों में पूरी की पूरी है, कौन सी अपूर्ण निशोथ-विशेषचूर्णि अर्थात् संक्षिप्तरूप में है, किनका अर्थ रूप से निर्देश किया
जिनदासगणिकृत प्रस्तुत चूर्णि५ मूल सूत्र, नियुक्ति एवं गया है और किनका बिल्कुल उल्लेख नहीं है।
भाष्यगाथाओं के विवेचन के रूप में है। इसकी भाषा अल्प सिद्धिगइमुवगयाणं कम्मविसुद्धाण सव्वसिद्धाणं।
संस्कृत-मिश्रित प्राकृत है। प्रारंभ में पीठिका है जिसमें निशीथ नमिऊणं दसकालियणिज्जुतिं कित्तइस्सामि।।1।
की भूमिका के रूप में तत्संबद्ध आवश्यक विषयों का व्याख्यान यह गाथा न तो जिनदासगणि की चर्णि में है, न किया गया है। सर्वप्रथम चूर्णिकार ने अरिहंतादि को नमस्कार अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि में। इनमें इसका अर्थ अथवा संक्षिप्त किया है तथा निशीथचूला के व्याख्यान का संबंध बताया है-- उल्लेख भी नहीं है।
नमिऊणऽरहंताणं सिद्धाण य कम्मचक्कमुक्काणं। अपुहुत्तपुहुत्ताई निद्दसिउं एत्थ होइ अहिगारो।
सयणिसिनेहविमुक्काण सव्वसाहूण भावेण॥1॥ चरणकरणाणुजोगेण तस्स दारा इमे होंति॥4॥
सविसेसायरजुत्तं, काउ पणामं च अत्थदायिस्प।
पज्जुण्णखमासमणस्स, रण-करणाणुपालस्स।।2।। इस गाथा का अर्थ तो दोनों चूर्णियों में है किन्तु पूरी
एवं कयप्पणामो, पकप्पणामस्स विवरणं वन्ने। अथवा अपूर्ण गाथा एक भी नहीं है।
पुव्वायरियकयं चिय, अहं पि तं चेव उ विसेसा।।3।। णामं ठवणा दविए माउयपयसंगहेक्कए चेव।
भणिया विमुत्तिचूला, अहुणावसरो णिसीह चूलाए। पज्जव भावे य तहा सत्तेए एक्कगा होंति॥8॥
को संबंधो तस्सा, भण्णइ इणमो णिसामेहि।।4।। यह गाथा दोनों चूणियों में पूरी की पूरी उद्धृत की गई है। इन गाथाओं में अरिहंत, सिद्ध और साधुओं को सामान्य यह इन चूर्णियों की प्रथम नियुक्ति गाथा है जो हारिभद्रीय टीका रूप से नमस्कार किया गया है तथा प्रद्युम्न क्षमाश्रमण को की आठवीं नियुक्ति गाथा है
अर्थदाता के रूप में विशेष नमस्कार किया गया है। निशीथ का दव्वे अद्ध अहाउअ उवक्कमे देसकालकाले य दूसरा नाम प्रकल्प भी बताया गया है। तह य पमाणे वण्णे भावे पगयं तु भावेणं॥11॥
प्रारंभ में चूलाओं का विवेचन करते हुए चूर्णिकार ने यह गाथा भी दोनों चूर्णियों में इसी प्रकार उपलब्ध है-- बताया है कि चूला छह प्रकार की होती है। उसका वर्णन जिस आयप्पवायपुव्वा निज्जूढा होइ धम्मपन्नत्ती।
प्रकार दशवैकालिक में किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कर कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स उ एसणा तिविहा।।16। लेना चाहिए?६६ इससे सिद्ध होता है कि निशीथचूर्णि
यह गाथा दोनों चूर्णियों में संक्षिप्त रूप से निर्दिष्ट है. पर्ण दशकालिकचूर्णि के बाद लिखी गई है। इसके बाद आचार का रूप में उद्धृत नहीं।
स्वरूप बताते हुए आचार्य ने आचारादि पाँच वस्तुओं की ओर didasonsidationsdadidndiansonsidustandinid6d[ ३६ /Hamridrinidiosariwariridwarsidaditariandidra
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