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प्राचीन अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु लुप्त हो गयी अथवा उसकी प्राचीन विषयवस्तु सप्रयोजन वहाँ से अलग कर दी गई।
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
मेरी मान्यता यह है कि विषयवस्तु का यह परिवर्तन विस्मृति के कारण नहीं, परन्तु सप्रयोजन ही हुआ है। अन्तकृदशा की प्राचीन विषयवस्तु में जिन दस व्यक्तित्वों के चरित्र का चित्रण किया गया था उनमें निश्चित रूप से मातंग, अम्बड, रामपुत्त, भयाली (भगाली), जमाली आदि ऐसे हैं जो चाहे किसी समय तक जैन - परम्परा में सम्मान्यरूप से रहे हों, किन्तु अब वे जैन परम्परा के विरोधी या बाहरी मान लिये गये थे। जिनप्रणीत, अंगसूत्रों में उनका उल्लेख रखना समुचित नहीं माना गया अतः जिस प्रकार प्रश्नव्याकरण से ऋषिभाषित को ऋषियों के उपदेशों से सप्रयोजन अलग किया गया उसी प्रकार अन्तकृद्दशा से इनके विवरण को भी सप्रयोजन अलग किया। यह भी सम्भव है कि जब जैन- परम्परा में श्रीकृष्ण को वासुदेव के रूप में स्वीकार कर लिया गया तो उनके तथा उनके परिवार से सम्बन्धित कथानकों को कहीं स्थान देना आवश्यक था। अतः अन्तकृद्दशा की प्राचीन विषयवस्तु को बदल कर उसके स्थान पर कृष्ण और उनके परिवार से सम्बन्धित पाँच वर्गों को जोड़ दिया गया।
अन्तकृदशा की विषयवस्तु की चर्चा करते हुए सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने यह आता है कि दिगम्बर- परम्परा में अन्तकृदशा की जो विषयवस्तु तत्त्वार्थवार्तिक में उल्लिखित है वह स्थानांग की सूची से बहुत कुछ मेल खाती है। यह कैसे सम्भव हुआ? दिगम्बर परम्परा जहाँ अङ्ग आगमों के लोप की बात करती है तो फिर तत्त्वार्थवार्तिककार को उसकी प्राचीन विषयवस्तु के सम्बन्ध में जानकारी कैसे हो गई मेरी ऐसी मान्यता है कि श्वेताम्बर आगम साहित्य के सम्बन्ध में दिगम्बर- परम्परा में जो कुछ जानकारी प्राप्त हुई है वह यापनीय परम्परा के माध्यम से प्राप्त हुई है और इतना निश्चित है कि
सन्दर्भ
१.
स्थानाङ्ग (सं० मधुकर मुनि) दशम स्थान, सूत्र ११० एवं ११३ दस दसाओ पण्णताओ, तं जहा कम्मविवागदसाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, आयारदसाओ, पण्हावागरण- दसाओ, बंधदसाओ, दोगिदिसाओ, दीहदसाओ, संखेवियदसाओ।
एवं अंतगडदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहाणमि मातंगे सोमिले, रामगुत्ते सुदंसणे चेव । जमाली य भगाली य किंकमे चिल्लएतिय। फाले अंबडपत्ते य एमेते दस आहिता ॥
समवायाङ्ग (सं० मधुकरमुनि) प्रकीर्णक समवाय सूत्र, ५३९ ५४० । से किं तं अतंगडदसाओ ? अन्तगडदसासु णं अन्तगडाणं नगराई उज्जाणाई चेहयाई वणसंडाई रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इडिविसेसा
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यापनीय और श्वेताम्बरों का भेद होने तक स्थानांग में उल्लिखित सामग्री अन्तकृद्दशा में प्रचलित रही हो और तत्सम्बन्धी जानकारी अनुश्रुति के माध्यम से तत्त्वार्थवार्तिककार तक पहुँची हो तत्त्वार्यवार्तिककार को भी कुछ नामों के सम्बन्ध में अवश्य ही भ्रान्ति है, अगर उसके सामने मूलमन्थ होता तो ऐसी प्रान्ति की सम्भावना नहीं रहती। जमाली का तो संस्कृत रूप यमलीक हो सकता है, किन्तु भगाली या भयाली का संस्कृत रूप वलीक किसी प्रकार नहीं बनता। इसी प्रकार किंकम का किष्कम्बल रूप किस प्रकार बना यह भी विचारणीय है चिल्वक या पल्लतेत्तीय के नाम का अपलाप करके पाल अम्बष्ठपुत्त को भी अलगअलग कर देने से ऐसा लगता है कि वार्तिककार के समक्ष मूल ग्रन्थ नहीं है, केवल अनुश्रुति के रूप में ही वह उनकी चर्चा कर रहा है। जहाँ श्वेताम्बर चूर्णिकार और टीकाकार विषयवस्तु सम्बन्धी दोनों ही प्रकार की विषयवस्तु से अवगत हैं वहाँ दिगम्बर आचार्यों को (मात्र प्राचीन संस्करण) उपलब्ध अन्तकृदशा की विषयवस्तु के सम्बन्ध में जो कि छठी शताब्दी में अस्तित्व में आ चुकी थी, कोई जानकारी नहीं थी अतः उनका आधार केवल अनुश्रुति या प्रन्थ नहीं जब कि श्वेताम्बर - परम्परा के आचार्यों का आधार एक ओर ग्रन्थ था तो दूसरी ओर स्थानांग का विवरण। धवला और जयधवला में अन्तकृद्दशा - सम्बन्धी जो विवरण उपलब्ध है वह निश्चित रूप से तत्त्वार्थवार्तिक पर आधारित है। स्वयं धवलाकार वीरसेन 'उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये' कहकर उसका उल्लेख करता हैं ।" इससे स्पष्ट है कि धवलाकार के समक्ष भी प्राचीन विषयवस्तु का कोई ग्रन्थ उपस्थित नहीं था ।
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अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि प्राचीन अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु ईसा की चौथी पाचवीं शताब्दी के पूर्व ही परिवर्तित हो चुकी थी और छठी शता के अन्त तक वर्तमान अन्तकृद्दशा अस्तित्व में आ चुकी थी ।
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भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई पडिमाओ बहुविहाओ, खमा अज्जवं मद्दवं च सोअं च सच्चसहियं सत्तरसविहो य संजमो, उत्तमं च बंभ आकिंचणया तवो चियाओ समिइगुतीओ चेव, तह अपप्मायजोगो, सज्झायज्झाणाण य उत्तमाण दोणहंपि लक्खणाई ।
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पत्ताण व संजमुत्तमं जियहणं चव्विहकम्मखयम्मि जह केवलस्स लंभो, परियाओ जतिओ य जह पालिओ मुणिहि पायोवग्ओ य जो जहिं, जत्तियाणि भत्ताणि छेयइत्ता अंतगडो मुणिवरो तमरयोघविप्पमुक्को, मोक्खसुहमणुत्तरं च पत्ता । एए अण्णे य एवमाइ वित्थारेण परूवेई ।
अंतगडदसासु णं पस्ति वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संगहणीओ। से णं अंगद्वयाए अद्रुमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा सत्त वग्गा दस उद्देसणकाला दस समुद्देसणकाला संखेज्जाइं पवसयसहस्साइं पयग्गेणं, संखेज्जा अवखरा, अनंता गमा
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