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________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार भावना की उक्त चर्चा के बाद हमारे समक्ष एक प्रश्न उठ उत्तराध्ययन में लिखा है कि मनुष्य का यह शरीर अनित्य खडा होता है. कि भावना का यह चिंतन जैन - परंपरा में है, अपवित्र है और अशुचि से इसकी उत्पत्ति हुई है। इसमें जीव प्रतिपादित चार भावनाओं से है या बारह भावनाओं से। समाधान का निवास भी अशाश्वत है। यह शरीर दुःख एवं क्लेशों का के रूप में यही निवेदन किया जा रहा है कि हमारा यह चिंतन भाजन है अर्थात् यह शरीर स्वभाव से ही अनित्य है। इस अनित्य बारह भावनाओं का है। वैसे भी प्रारंभ में हमने इस बात का शरीर की अपेक्षा से ही नित्य और शाश्वस्त जीव अनित्य एवं उल्लेख किया है कि जैन-परंपरा में भावना या अणुप्रेक्षा का बहुत अशाश्वत जान पड़ता है। शारीरिक एवं मानसिक जितने भी महत्त्व है। अणुप्रेक्षा से तात्पर्य बारह भावनाओं से है चार भावनाओं क्लेश हैं, वे सब इस शरीर के आश्रय से ही हैं। तात्पर्य यह है से नहीं। अब जब चार प्रकार की भावनाओं का प्रसंग उठा है तो कि क्लेश उत्पन्न करने वाले शरीर के प्रति व्यक्ति को किसी इसका उल्लेख करना समीचीन जान पड़ता है, लेकिन यहाँ इतना प्रकार का ममत्व नहीं रखना चाहिए, क्योंकि इससे व्यक्ति की बारह भावना और चार भावना दोनों भिन्न- सांसारिक वासनाओं के प्रति आस्था दृढ होती है और वह अपने भिन्न अवधारणाएँ हैं। कर्मबंधन को ज्यादा मजबूत बनाता है। जैन-ग्रंथों में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन संसार की सभी वस्तुएँ अनित्य हैं। एक क्षण ये किसी से चारों को भावना कहा गया है। यह मानव-मन की अवस्था है जडती हैं तो दसरे क्षण उससे अलग भी हो जाती हैं। मरणविभत्ति और इसे मानवता का गुण भी कहा जा सकता है, लेकिन जैनाचार्यों में कहा गया है कि देव सर असर सिद्धि ऋद्धि. माता पिता. द्वारा प्रतिपादित बारह प्रकार की भावनाएँ अलग तथ्य हैं। ये पुत्र, पत्नी, बंधु, मित्र, भवन, उपवन, यान, वाहन, बल, वीर्य, मानव के गुण नहीं बल्कि उसके चिंतन या साधनात्मक अवस्था नया साधनात्मक अवस्था रूप, यौवन, देहादि सब कुछ अनित्य है। मनुष्य का यह शरीर की परिचायक हैं। ये बारह भावनाएँ इस प्रकार हैं- १. अनित्य जिस पर वह अभिमान करता है तथा जिसे सबसे अधिक प्रेम भावना, २. अशरण-भावना, ३. संसारभावना, ४. एकत्वभावना, वना, करता है वह भी क्षणिक है, अनित्य है। आचार्य शिवार्य अपनी ५. अन्यत्व-भावना, ६. अशुचिभावना, ७. आस्रव-भावना, ८. कृति भगवतीआराधना में व्यक्ति के शरीर की उपमा फेन के संवरभावना, ९. निर्जराभावना, १०. लोकभावना, ११. धर्म । - बुलबुले से करते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार फेन के भावना एवं १२.बोधि-भावना। इन बारह भावनाओं का जैनाचार्यों बुलबुले बनते और नष्ट होते हैं ठीक उसी प्रकार यह मानवने उल्लेख किया ही है साथ ही साथ जैनेतर परंपराओं में भी इन शरीर उत्पन्न होता है एवं विनाश को प्राप्त करता है। फेन के पर चिंतन हुआ है । यथाप्रसंग उन्हें भी प्रस्तुत करने का हर बुलबुले में हवा और पानी दोनों होते हैं। बुलबुले के अंदर हवा संभव प्रयास किया जाएगा। रहती है और जब तक इसका दाब बाहरी वायुमंडल के दाब के १. अनित्य-भावना - संसार के सभी पदार्थों को अनित्य, बराबर रहता है. बलबले का अस्तित्व बना रहता है। जब यह नाशवान्, क्षणभंगुर मानना ही अनित्य-भावना है। धन संपत्ति, दाब वायमंडलीय दाब से अधिक हो जाता है, तब बलबला फट अधिकार-वैभव ये सब क्षणभंगर हैं। कालक्रम से संसार के जाता है और विनष्ट हो जाता है। बलबले के विनाश की प्रक्रिया समस्त पदार्थों में परिवर्तन होता रहता है। पदार्थ-का जो स्वरूप अत्यल्प समयावधि में सम्पन्न हो जाती है। ठीक इसी प्रकार प्रात:काल था, वह मध्याह्नकाल में नहीं रहता है और जो मध्याह्नकाल मानव-शरीर भी अत्यंत सीमित अवधि में समाप्त हो जाता है। में था वह अपराह्नकाल में नहीं रहता है। अतः व्यक्ति को अत्यल्प समय में नष्ट होने वाले शरीर के प्रति जैनाचार्यों का कहना है कि समग्र सांसारिक वैभव, इंद्रियाँ, न तो अभिमान करना चाहिए और न ही किसी प्रकार का राग - रूप, यौवन, बल, आरोग्यादि सभी इंद्रधनुष के समान क्षणिक भाव ही रखना चाहिए। हैं, संयोगजन्य है। यही कारण है कि वे व्यक्ति को समग्र सांसारिक यह शरीर नष्ट होने वाला है ऐसा जानकार जीव को किसी उपलब्धियों में आसक्त नहीं रहने का संदेश देते हैं, क्योंकि जो तरह का प्रमाद नहीं करना चाहिए। अपने जीवनकाल में उसे वस्तु अनित्य है, उसके प्रति राग या द्वेष का भाव रखने में कोई । यह चिंतन करते रहना चाहिए कि हमारे शरीर की स्थिति यहाँ लाभ नहीं होता है। సాగరగరుంగారశారురురురువారందరయతాయుగాలుగుసారసాగరుగారు Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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