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________________ भावना : एक चिन्तन डॉ. रज्जन कुमार पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान, वाराणसी... जैन धर्म अपने मौलिक सिद्धान्त के लिए प्रसिद्ध रहा है। विचार पर सामग्री मिलती है। आज विश्व में कर्म सिद्धान्त. पनर्जन्म, अहिंसाविचार, स्यादवाद, जहाँ तक भावना के महत्त्व की बात है तो इसकी पुष्टि नय-निक्षेप आदि कोई नया सिद्धांत नहीं है। जैनों का इन सब 'प्राकृतसक्तिसरोज' के भावनाधिकार में उल्लिखित इस तथ्य पर जो चिंतन हुआ है वह सब मानव को इस संसार रूपी से हो जाती है - दान, शील, तप एवं भावना के भेद से धर्म चार । महासमुद्र से पार होने का रास्ता बताता है। जैनपरंपरा में भावना प्रकारका होता है, परंतु इन चतुर्विध धर्मों में भावना ही या अणुप्रेक्षा के रूप में एक विचार का प्रतिपादन किया गया है। महाप्रभावशाली है। तात्पर्य यह है कि संसार में जितने भी भावना या अणुप्रेक्षा व्यक्ति के शुभ विचारों की द्योतक है और सकृत्य हैं, धर्म हैं उनमें केवल भावना ही सर्वप्रधान है। जैनाचार्यों को यह विश्वास है कि इसके चिंतन से वह सांसारिक भावनाविहीन धर्म, धर्म नहीं, बल्कि शून्यता का द्योतक है। बंधन को कमजोर करता है तथा मुक्ति-पथ की ओर अग्रसर वास्तव में भावना ही परमार्थस्वरूप है। भाव ही धर्म का साधक होता है। है और महान तीर्थंकरों ने भाव को ही सम्यक्त्व का मूल मंत्र मानव-मन सदैव चिंतन करता रहता है। चिंतन की इस बताया है। आगे सूक्ति-संग्रह में कहा गया है कि कोई व्यक्ति स्थिति में उसके मन में नाना प्रकार के भाव उठते रहते हैं। इन कितने ही दान करे चाहे समग्र जिन-प्रवचन को कण्ठस्थ कर भावों में शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के विचार होते हैं। सामान्य ले, उग्र से उग्र तपस्या करे, भूमि पर शयन करे, दीर्घकाल तक रूप से शुभ विचारों से व्यक्ति का इष्ट एवं अशुभ विचारों से मुनि धर्म का पालन करे, लेकिन यदि उसके मानस में भावनाओं अनिष्ट होता है। दार्शनिक या धार्मिक दृष्टि से जो विचार व्यक्ति की उद्भावना नहीं होती तो उसकी समस्त प्रक्रियाएँ उसी प्रकार के संसार-मोहभंग में सहायक होते हैं शुभ हैं तथा इसके विपरीत निष्फल होती हैं, जिस प्रकार धान्य के छिलके का बोना निष्फल अशुभ। शुभ और अशुभ के निर्धारण का यही एक मानदण्ड होता है। तात्पर्य यह है कि खेत में धान की जगह अगर उसके नहीं है। इसके अन्य कई मानदण्ड हो सकते हैं, परंतु यहाँ हम इन छिलके को बोया जाएगा तो फसल उत्पन्न नहीं होगी, ठीक उसी समस्याओं की उलझन में न पड़कर जैन-दर्शन में प्रतिपादित प्रकार मनुष्य की समस्त सद्भावनाएं भावना के अभाव में 'भावना-विचारणा' पर प्रकाश डालेंगे। उपयोगी नहीं रह जाती हैं। भावना जिन-दर्शन की नैतिक विचारणा का एक महत्त्वपूर्ण भावना के संबंध में दिगंबर - आचार्य श्री कुंदकुंदजी का तथ्य है। मुख्य रूप से यह साधना के क्षेत्र से जुड़ी है, लेकिन मानना है कि व्यक्ति चाहे श्रमण हो अथवा गृहस्थ, भाव ही इसका धार्मिक एवं दार्शनिक दृष्टि से भी महत्त्व है। जैनों का उसके विकास में कारणभूत होता है। भावरहित श्रवण एवं ऐसा मानना है कि यह मन का वह भावात्मक पहलू है जो अध्ययन करने से तब तक कोई लाभ नहीं होता, जब तक साधक को उसकी वस्तुस्थिति का बोध कराता है। जैन-आचार कि उनका भाव पूर्ण रूप से समझ में नहीं आए। ३ अर्थात् का प्रतिपादन करने वाले महत्त्वपूर्ण ग्रंथों यथा-आचारांग, भाव को समझे बिना किसी तरह का प्रयास करना व्यर्थ है। दशवैकालिक, मूलाचारादि में इस पर व्यापक चिंतन किया गया जैन-आचार्यों की दृष्ट में भावनाएँ मोक्ष या कैवल्य प्राप्ति में है। बारसअणुवेक्खा, कार्तिकेयाणुप्रेक्षा, तत्त्वार्थसूत्र, ज्ञानार्णव सहायक होती है और वे व्यक्ति को मोक्षपथ की ओर बढ़ने जैसे महत्त्वपूर्ण दिगंबर-ग्रंथों में इस पर अलग से चिंतन किया में सोपान का कार्य करती हैं। गया है। श्वेताम्बर-परंपरा में प्रचलित प्रकीर्णकों में भी भावना - anitariandiariandidacidiardiadriedrsaririramid-२८iddroiddnirdeshariramdramdastiradarshasansar Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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