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वस्तु सुरक्षित है।
र द्वितीय संस्कारमा महत्त्वपूर्ण
- चीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - महावीरभाषित में परिगणित नहीं किया गया था या अन्य कोई कारण क्या प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु सुरक्षित है? था, हम नहीं कह सकते। यह भी सम्भव है कि उत्कटवादी अध्याय यहा यह चर्चा भी महत्त्वपूर्ण है कि क्या प्रश्नव्याकरण के प्रथम में किसी ऋषि का उल्लेख नहीं है, साथ ही यह अध्याय चार्वाक-दर्शन और द्वितीय संस्कारों की विषयवस्तु पूर्णत: नष्ट हो गई है या वह का प्रतिपादन करता है। अत: इसे ऋषिभाषित में स्वीकार नहीं किया आज भी पूर्णत: या आंशिक रूप में सुरक्षित है। गया हो। समवायांग और नन्दीसूत्र के मूलपाठों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण के प्रथम संस्करण में ऋषिभाषित, यह है कि नन्दीसूत्र में प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन हैं- ऐसा स्पष्ट आचार्यभाषित और महावीरभाषित के नाम से जो सामग्री थी वह आज पाठ है१२ जबकि समवायांग में ४५ अध्ययन, ऐसा पाठ न होकर ४५ भी ऋषिभाषित, ज्ञाताधर्मकथा, सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में बहुत उद्देशन काल है, मात्र यही पाठ है। हो सकता है कि समवायांग के कुछ सुरक्षित है। ऐसा लगता है कि ईसवी सन् के पूर्व ही उस सामग्री रचना-काल तक वे उद्देशक रहे हों, किन्तु आगे चलकर वे अध्ययन को वहाँ से अलग कर इसिभासियाई के नाम से स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप कहे जाने लगे हों। यदि समवायांग के काल तक ४५ अध्ययनों की में सुरक्षित कर लिया गया था। जैन-परम्परा में ऐसे प्रयास अनेक अवधाः होती तो समवायांगकार उसका उल्लेख अवश्य करते क्योंकि ___ बार हुए हैं जब चूला या चूलिका के रूप में ग्रन्थों में नवीन सामग्री समवायांग में अन्य अंग-आगमों की चर्चा के प्रसंग में अध्ययनों का जोड़ी जाती रही अथवा किसी ग्रन्थ की सामग्री को निकालकर उससे स्पष्ट उल्लेख है।
एक नया ग्रन्थ बना दिया। उदाहरण के रूप में किसी समय निशीथ इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या निमित्तशास्त्र को आचारांग की चूला के रूप में जोड़ा गया और कालान्तर में उसे एवं चामत्कारिक विद्याओं से युक्त कोई प्रश्नव्याकरण बना भी था या वहाँ से अलग कर निशीथ नामक नया ग्रन्थ ही बना दिया गया। इसी यह सब कल्पना की उड़ानें हैं? यह सत्य है कि प्रश्नव्याकरण की प्रकार आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) के आठवें अध्याय (पर्युषणकल्प) पद-संख्या का समवायांग, नन्दी, नन्दीचूर्णि और धवला में जो उल्लेख की सामग्री से कल्पसूत्र नामक एक नया ग्रन्थ ही बना दिया गया। है, वह काल्पनिक है। यद्यपि समवायांग और नन्दी, प्रश्नव्याकरण अत: यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि पहले प्रश्नव्याकरण में के पदों की निश्चित संख्या नहीं देते हैं-मात्र संख्यात-शत-सहस्र- इसिभासियाई के अध्याय जुड़ते रहे हों और फिर अध्ययनों की सामग्री ऐसा उल्लेख करते हैं, किन्तु नन्दीचूर्णि एवं समवायांगवृत्ति में उसके को वहाँ से अलग कर इसिभासियाई नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ अस्तित्व पदों की संख्या ९२१६००० और धवला' में ९३१६००० बतायी में आया हो। मेरा यह कथन निराधार भी नहीं है। प्रथम तो दोनों गई है, जो मुझे तो काल्पनिक ही अधिक लगती है।
नामों की साम्यता तो है ही। साथ ही समवायांग में यह भी स्पष्ट मेरी अवधारणा यह है कि स्थानांग, समवायांग, नन्दी, तत्त्वार्थ, उल्लेख है कि प्रश्नव्याकरण में स्वसमय और परसमय के प्रज्ञापक राजवार्तिक, धवला एवं जयधवला में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु प्रत्येकबुद्धों के कथन हैं। (पण्हावागरणदसासुणं ससमय-परसमय का जिस रूप में उल्लेख है वह पूर्णत: काल्पनिक चाहे न हो, किन्तु पण्णवय-पत्तेअबुद्ध .......भासियाइणं, समवायांग ५४७)। इसिभासियाई उसमें सत्यांश कम और कल्पना का पुट अधिक है। यद्यपि निमित्तशास्त्र के सम्बन्ध में यह स्पष्ट मान्यता है कि उसमें प्रत्येकबुद्धों के वचन के विषय को लेकर कोई प्रश्नव्याकरण अवश्य बना होगा, फिर भी हैं। मात्र यही नहीं समवायांग स-समय-पर समय पण्णवय पत्तेअबुद्ध-अर्थात् उसमें समवायांग और धवला में वर्णित समग्र विषयवस्तु एवं चामत्कारिक स्वसमय एवं परसमय के प्रज्ञापक प्रत्येक बुद्ध का उल्लेख कर इसकी विद्याएँ रही होंगी यह कहना कठिन ही है।।
पुष्टि भी कर देता है कि वे प्रत्येक बुद्ध मात्र जैन-परंपरा के नहीं हैं, इसी सन्दर्भ में समवायांग के मूलपाठ 'अद्दागंगट्ठबाहुअसिमणि अपितु अन्य परम्पराओं के भी है। इसिभासियाइं में मंखलिगोशाल, खोमआइच्चभासियाणं१५ के अर्थ के सम्बन्ध में भी यहाँ हमें पुनर्विचार देवनारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, उद्दालक आदि से सम्बन्धित करना होगा। कहीं अदाग, अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, खोम (क्षोम) अध्याय भी इसी तथ्य को सूचित करते हैं। मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण और आदित्य व्यक्ति तो नहीं हैं- क्योंकि इनके द्वारा भाषित कहने का प्राचीनतम अधिकांश भाग आज भी इसिभासियाई में तथा कुछ का क्या अर्थ है? स्थानाङ्ग के विवरण की समीक्षा करते हुए जैसी भाग सूत्रकृतांग, ज्ञाताधर्मकथा और उत्तराध्ययन के कुछ अध्यायों के कि मैंने सम्भावना प्रकट की है कि कहीं अदाग-आईक, बाहु-बाहुक, रूप में सुरक्षित है। प्रश्नव्याकरण का इसिभासियाई वाला अंश वर्तमान खोम-सोम नामक ऋषि तो नहीं है, क्योंकि ऋषिभाषित में इनके उल्लेख । इसिभासियाई (ऋषिभाषित), महावीरभासियाई में तथा आयरियभासियाई हैं। आदित्य भी कोई ऋषि हो सकते हैं। केवल अंगुट्ठ, असि और का कुछ अंश उत्तराध्ययन के अध्यनों में सुरक्षित है। ऋषिभाषित के मणि ये तीन नाम अवश्य ऐसे हैं, जिनके व्यक्ति होने की सम्भावना तेत्तलिपुत्र नामक अध्याय की विषय-सामग्री ज्ञाताधर्मकथा के १४वें धूमिल है।
तेत्तलिपुत्र नामक अध्याय में आज भी उपलब्ध है। इस समग्र चर्चा का फलित तो मात्र यही है कि प्रश्नव्याकरण उत्तराध्ययन के अनेक अध्याय प्रश्नव्याकरण के अंश थे, इसकी की विषयवस्तु समय-समय पर बदलती रही है।
पुष्टि अनेक आधारों से की जा सकती है। सर्वप्रथम उत्तराध्ययन नाम ही इस तथ्य को सूचित करता है कि यह किसी ग्रन्थ के उत्तर-अध्ययनों
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