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• यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
सन्दर्भ
अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग २, पृष्ठ १०५०
अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग ४, पृष्ठ १८३५
'अह्' धातु से वर्तमानकालीन कर्ता अर्थ में शतृ प्रत्यय लगाने से संस्कृत - व्याकरणानुसार 'अर्हत्' शब्द इस प्रकार बनता है : अर्ह + शतृ । 'लशक्वतद्धिते' १।३४८ सूत्र के शतृ के श की इत् संज्ञा और 'तस्यलोपः ' १।३ ।९ सूत्र से शकार का लोप हुआ। तब अर्ह + अतृ रहा। यहाँ 'उपदेशेऽजनुनासिक इत् १।३।२ सूत्र से ऋकार की इत् संज्ञा और 'तस्यलोपः' सूत्र से ऋकार का लोप होने पर 'अर्ह + अत् रहा। 'अज्झीनं परेण संयोज्यम् न्याय से सबका सम्मेलन करने पर अर्हत्' यह रूप सिद्ध होता है।
'अर्हत्' का प्राकृतरूप 'अरिहंताणं' इस प्रकार बनता है :
अर्हत् शब्द को 'उच्चार्हति ८।२।१११ सूत्र से हकार से पूर्व 'इत्' हुआ तब अहत् बना, रेफ में इकार को मिलाने पर अरिहत् बना। उगिदचांसर्वनामस्थाने धातोः ७।११७० (पाणिनि के) सूत्र से नुम् होकर अनुबंध का लोप होने पर 'अरिहन्त' रहा। 'ङ अणनो व्यञ्जने' १८ | १ | २५ | सूत्र से नकार का अनुस्वार और प्राकृत में स्वररहित व्यञ्जन नहीं रहता। अतः अन्त्य हल् तकार में अकार आया, तब बना अरिहंत ।
'शक्तार्तवषड्नमः स्वस्तिस्वाहास्वधामिः ' २।२।२५ सूत्र से नमः के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। अतः यहाँ भी नमः के योग में चतुर्थी बहुवचन का प्रत्यय भ्यस् आया, तब अरिहंत + भ्यस् बना। 'चतुः षष्ठीः ८।३।१३१ सूत्र से षष्ठी बहुवचन का प्रत्यय आम् आया तब अरिहंत + आम् बना 'जस्स्वसितोदो द्वामि दीर्घः ८। ३ । १२ सूत्र से अजन्ताङ्ग को दीर्घ हुआ। 'टा आमोर्णः ' ८।३।६ सूत्र से आम् के आकाण तथा 'मोऽनुस्वारः | ८ | १ | २३ | सूत्र से मकार का अनुस्वार होने पर अरिहंताणं यह रूप सिद्ध हुआ। ४-५ तेषामेव स्वस्वभाषापरिणाममनोहरम् ।
अप्येकरूपं वचनं, यत्ते धर्मावबोधकृत् ||३|| साऽग्रेपि योजनशते, पूर्वोत्पन्ना गदाम्बुदाः । यदश्चसा विलीयनो त्यहारानिलोर्मिभिः ॥४॥ (वीतरागस्तोत्र, तृतीयप्रकाश)
कम समझ वाले लोग यह पूछ बैठते हैं कि "भगवान् के मांस और रक्त किस प्रकार से सफेद हो सकते हैं? यह तो भगवान् की महत्ता का वैशिष्ट्य दिखलाने के लिए उक्ति मात्र है। इसमें कोई तथ्यांश दिखाई ही नहीं देता।" इसका समाधान है कि परमकरुणामूर्ति भगवान के रक्त और मांस का सफेद होना कोई आश्चर्य एवं उनका वैशिष्ट्य सिद्ध करने के लिए कही गई उक्ति मात्र नहीं है। जैनशासन में जो वस्तु जैसी है, वैसी ही कही गई है अस्तु हम देखते हैं कि
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जिस प्रकार एक माता का वात्सल्य अपने पुत्र पर होने से पुत्र बहुत वर्षो के पश्चात् जब माता के पास आकर उसे नमस्कार करता है, तब स्नेह के वश माता के स्तनों से दूध झरता है अथवा स्तनों में दूध आता है। यदि उसी माता के सामने अन्य के पुत्र को लाया जाता तो उसके स्तनों में कदापि दूध न तो आयेगा ही और न झरेगा ही। उसी प्रकार जिनकी आत्मा में सारे जगत् के जीवों के लिए इस प्रकार वात्सल्य का सागर लहराता हो, मानो समुद्र में जल। तो भला सोचिए क्यों न, उनके शरीर का रक्त और मांस दुग्धवत् श्वेत होगा ? अवश्य होगा। इसमें संदेह को लेशमात्र भी स्थान नहीं है। अभिधानराजेन्द्रकोश, तृतीय, भाग, पृ. ३४१ अभिधानराजेन्द्रकोश, प्रथम भाग, पृ. ७६१
अभिधानराजेन्द्रकोश, चौथा भाग, पृ. १४५९ ।
१०. सिधू धातु से निष्ठा ३।२।१०२ । सूत्र से क्त प्रत्यय आने पर सिंध् + क्त बना। लशक्वतद्धिते । १।६।८। सूत्र से ककार की इत् संज्ञा तथा तस्य लोपः सूत्र से ककार का लोप होने पर सिध + त रहा। झषस्तथोर्धोर्धः १८ | २|४० | सूत्र से तकार का धकार तथा झलां जश् झशि ८।४।५३ सूत्र से शक्तार्थवषड् नमः स्वस्तिस्वाहास्वाधाभिः | २|२| २५ | सूत्र से नमः के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है अतः चतुर्थी का भ्यस् प्रत्यय आया और चतुर्थ्याः षष्ठी ८|३ | १३१ से भ्यस् के स्थान पर आम् आया सिद्ध + आम जस्स्ङसित्तोदो द्वामि दीर्घः ८। ३ । १२ सूत्र से अजन्तांग को दीर्घ तथा टा आमोर्णः सूत्र से अकार का णकार तथा मोऽनुस्वारः । ८ । १ । २३ । से मकार का अनुस्वार होने पर सिद्धाणं बनता है।
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१. आयरियाणं (आचार्येभ्यः )
चर् धातु से आङ् उपसर्ग लगने पर आङ् + चर् बना। लशक्वताद्विते सूत्र से की इत् संज्ञा और 'तस्यलोपः' सत्रसे का लोप 'ङ् आ + चर् बना। 'ऋहलोर्ण्यत् ३।१।२२४ सूत्र से ण्यत् प्रत्यय हुआ आचर् + ण्यत् बना। 'चुटू' ११३१७ से ण् की इत् संज्ञा तथा तू की "हलन्त्यतम्" ७२।११६ सूत्र से वृद्धि होने पर तथा सबका सम्मेलन करने पर 'जलतुम्बिकान्यायेन रेफस्योर्ध्वगमनम्' न्याय से रेफ् का ऊर्ध्वगमन होने पर सिद्ध रूप आचार्य बनता है।
“स्याद् भव्यचैत्यचौर्यसमेषु यात्" ८।२।१०७ सूत्र से यकार से पूर्व इत् का आगम तथा अनुबन्ध का लोप होने पर इको रेफ् में मिलाने से आचारिय बना। “क-ग-च-ज-त-द पयवां प्रायो लुक् " ८।१।१७७ सूत्र शे चकारका लोप "आचार्येचोच्च" ८।१।७३ सूत्र से आ के लोप होने पर शेष रहे आ के स्थान पर अत् । अवर्णोयः श्रति ८ । १ । १८० सूत्र से अ के स्थान पर यकार होने पर आयरिय बनता है। फिर नमः के योग में 'शक्तार्थबषड् नमः स्वस्ति स्वाता स्वधामिः २।२।२५ | सूत्र से चतुर्थी का भ्यस् आया और चतुर्थ्याः षष्ठी सूत्र से भ्यस् के स्थान पर आम् आया आयरिय+ आम् हुआ।
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