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-- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य (३२३) आदि भी मिलते हैं। ये तो कुछ ही उदाहरण हैं-ऐसे जो दिगंबर जैन समाज द्वारा ही प्रकाशित हैअनेकों महाराष्ट्री प्राकृत के क्रियारूप समयसार में उपलब्ध हैं। १. हाथीगुफा बिहार का शिलालेख-प्राकृत, जैन सम्राट् खारवेल, न केवल समयसार अपितु नियमसार, पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार मौर्यकाल १६५वाँ. वर्ष पृ. ४ लेख क्रमांक २, 'नमो आदि की भी यही स्थिति है।
अरहंतानं, नमो सवसिधानं' . ___ बारहवीं शती में रचित वसुनन्दीकृत श्रावकाचार (भारतीय ३२. वैकुण्ठ स्वर्गपुरी गुफा, उदयगिरि, उड़ीसा, प्राकृत, मौर्यकाल ज्ञानपीठ संस्करण) की स्थिति तो कुन्दकुन्द के इन ग्रन्थों से भी
१६५ वाँ वर्ष लगभग ई. पू. दूसरी शती पृ. ११ ले.क. बदतर है, उसकी प्रारंभ की सौ गाथाओं में ४०% क्रियारूप महाराष्ट्री प्राकृत के हैं।
३. मथुरा, प्राकृत, महाक्षत्रप शोडाशके ८१ वर्ष का पृ. १२ इससे फलित यह होता है कि तथाकथित शौरसेनी आगमों
क्रमांक ५ 'नम अरहतो वधमानस्।' के भाषागत स्वरूप में तो अर्धमागधी आगमों की अपेक्षा भी न
४. मथुरा, प्राकृत, काल निर्देश नहीं दिया है, किन्तु जे. एफ. केवल अधिक वैविध्य है, अपितु उस महाराष्ट्री प्राकृत का भी
फलीट के अनुसार लगभग १४-१३ ई. पूर्व प्रथम शती व्यापक प्रभाव है, जिसे सुदीप जी शौरसेनी से परवर्ती मान रहे
का होनी चाहिए। हैं। यदि ये ग्रन्थ प्राचीन होते तो इन पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री का प्रभाव कहाँ से आता ? प्रो. ए.एन. उपाध्ये ने प्रवचनसार
'अरहतो वर्धमानस्य की भूमिका में स्पष्टत: यह स्वीकार किया है कि उसकी भाषा ६. मथुरा,प्राकृत सम्भवतः १४-१३ ई.पू. प्रथमशती,पृ. १५ पर अर्धमागधी का प्रभाव है। प्रो. खड़बड़ी ने तो षटखण्डागम लेख क्र. १०, ‘मा अरहतपूजा' । की भाषा को भी शुद्ध शौरसेनी नहीं माना है।
७. मथुरा, प्राकृत,पृ. १७ क्र. १४ 'मा अरतानं श्रमणश्रविका' । नकार और णकार में कौन प्राचीन
८. मथुरा प्राकृत,पृ. १७ क्रमांक १५ 'नमो अरहंतानं', अब हम णकार और नकार के प्रश्न पर आते हैं। भाई ९. मथुरा प्राकृत,पृ. १८ क्र. १६ 'नमो अरहतो महाविरस' सुदीप जी आपका यह कथन सत्य है कि अर्धमागधी में नकार १०. मथुरा, प्राकृत,हुविष्क संवत् ३९, हस्तिस्तम्भ पृ. ३४, क्र. और णकार दोनों पाए जाते हैं। किन्तु दिगंबर शौरसेनी ४३, 'अयर्येन रुद्रादासेन अरहंतनं पजाये।' आगमतुल्यग्रंथों ने सर्वत्र णकार का पाया जाना यही सिद्ध करता ११. मथरा.प्राकृत भग्न वर्ष ९३.प्र. ४६, क्रमांक ६७ नमो है कि जिस शौरसेनी को आप अरिष्टनेमि के काल से प्रचलित
अर्हतो महाविरस्स' प्राचीनतम प्राकृत कहना चाहते हैं, उस णकारप्रधान शौरसेनी
१२. मथुरा प्राकृत वासुदेव सं. ९८, पृ. ४७ क्र. ६०, ‘नमो का जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी तक हुआ भी नहीं था। 'ण' ।
अरहतो महावीरस्स की अपेक्षा 'न' का प्रयोग प्राचीन है। ई.पू. तृतीय शती के अशोक के अभिलेख एवं ई.पू. द्वितीय शती के खारवेल के शिलालेख
१३. मथुरा, प्राकृत,पृ. ४८,क्र.७१ 'नमो अरहंताण सिहकस।' से लेकर मथुरा के शिलालेख (ई.पू. दूसरी शती से ईसा की १४. मथुरा प्राकृत, भग्न पृ. ४८.क्र.७२ 'नमो अरहंतान', दूसरी शती तक) इन लगभग ८० जैन शिलालेखों में एक भी १५. मथुरा, प्राकृत,भग्न पृ. ४८, क्र. ७३ 'नमो अरहंतान'. णकार का प्रयोग नहीं है। इनमें शौरसेनी प्राकृत के रूपों यथा १६. मथरा, प्राकृत भग्न पृ.४८ क्र.७५, अरहंतान वर्धमानस्य . णमो, अरिहंताणं और णमो वड्ढमाणं का सर्वथा अभाव है।
१७. मथुरा, प्राकृत,भग्न पृ.५१, क्र.८०, नमो अरहंतान...द्वन', यहाँ हम केवल उन्हीं प्राचीन शिलालेखों को उद्धृत कर रहे हैं, जिन न पालों का योग मारे जातोपी शरसेन प्रदेश, जहाँ से शौरसेनी प्राकृत का जन्म हुआ, अभिलेखीय साक्ष्य जैन शिलालेखसंग्रह. भाग-२ से प्रस्तत हैं. वहाँ के शिलालेखों में दूसरी तीसरी शती तक णकार एवंद के
प्रयोग का अभाव यही सिद्ध करता है कि दिगंबर आगमों एवं anohriranihriranianoonardoisonitorianoranciniawardM[१०८roniroraniroraniranitoriranioranirdroidnisonitorolind
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