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________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य ७. जैन आगम एवं आगम तुल्य ग्रंथों में आए भाषिक खोखला है, यह सिद्ध हो जाता है। मात्र यही नहीं इससे यह भी परिवर्तनों का एक कारण यह भी है कि वे विभिन्न कालों एवं सिद्ध होता है कि शौरसेनी आगमतुल्य ग्रंथ न केवल अर्धमागधी प्रदेशों में सम्पादित होते रहे हैं। सम्पादकों ने उनके प्राचीन से प्रभावित हैं, अपितु उससे परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत से भी स्वरूप को स्थिर रखने का प्रयत्न नहीं किया, अपितु उन्हें सम्पादित प्रभावित हैं-- करते समय अपने युग एवं क्षेत्र की प्रचलित भाषा और व्याकरण १. आत्मा के लिए अर्धमागधी में आता, अत्ता, अप्पा, के आधार पर उनमें परिवर्तन भी कर दिया। यही कारण है कि आदि शब्द-रूपों के प्रयोग उपलब्ध हैं. जबकि शौरसेनी में 'त' अर्धमागधी में लिखित आगम भी जब मथुरा में संकलित एवं सम्पादित हुए तो उनका भाषिक स्वरूप अर्धमागधी की अपेक्षा साथ-साथ अप्पा शब्दरूप जो कि अर्धमागधी का है अनेक बार शौरसेनी के निकट हो गया, और जब बलभी में सम्पादित किये प्रयोग में आता है। केवल समयसार में ही नहीं, अपितु नियमसार गए तो वह महाराष्ट्री से प्रभावित हो गया। यह अलग बात है कि (१२०, १३२१, १८३) आदि में भी अप्पा शब्द का प्रयोग है। ऐसा परिवर्तन सम्पूर्ण रूप में न हो सका और उसमें अर्धमागधी के तत्त्व भी बने रहे। अतः अर्धमागधी और शौरसेनी आगमों में २. श्रृत का शौरसेनी रूप सद बनता है। शौरसेनी आगमतुल्य भाषिक स्वरूप का जो वैविध्य है वह एक यथार्थता है, जिसे हमें - ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर सुद सुदकेवली आदि शब्दरसों के प्रयोग स्वीकार करना होगा। भा हुए हैं, जबकि समयसार (वर्णी ग्रंथमाला) गाथा ९ एवं १० में स्पष्ट रूप से सुयकेवली, सुयणाण शब्दरूपों का भी प्रयोग मिलता क्या शौरसेनी आगमों के भाषिक स्वरूप में है। जबकि ये दोनों महाराष्ट्री शब्द-रूप हैं और परवती भी हैं। एकरुपता है? अर्धमागधी में तो सदैव सुत शब्द का प्रयोग होता है। किन्तु डा. सुदीप जैन का दावा है कि “आज भी शौरसेनी ३. शौरसेनी में मध्यवर्ती 'त' का 'द' होता है साथ ही आगम साहित्य में भाषिक तत्त्व की एकरूपता है, जबकि उसमें लोप की प्रवृत्ति अत्यल्प है, अत: उसके क्रियारूप हवदि, अर्धमागधी आगम साहित्य में भाषा के विविध रूप पाये जाते होदि, कुणदि, गिण्हदि, परिणमदि, भण्णदि, पस्सदि आदि बनते हैं। उदाहरणस्वरूप शौरसेनी में सर्वत्र 'ण' का प्रयोग मिलता है. हैं। इन क्रिया-रूपों का प्रयोग उन ग्रन्थों में भी हुआ, किन्तु उन्हीं कहीं भी 'न' का प्रयोग नहीं है। जबकि अर्धमागधी में नकार के ग्रन्थों के क्रिया-रूपों पर महाराष्ट्री प्राकृत का कितना व्यापक साथ-साथ णकार का प्रयोग भी विकल्पतः मिलता है। यदि प्रभाव है, इसे निम्न उदाहरणों से जाना जा सकता है - शौरसेनी-युग में नकार का प्रयोग आगमिक भाषा में प्रचलित समयसार, वर्णी ग्रंथमाला (वाराणसी) - होता तो दिगम्बर साहित्य में कहीं तो विकल्प से प्राप्त होता हीं।" - प्राकृतविद्या जुलाई-सितंबर ९६,पृ. ७ जाणइ (१०), हवई (११, ३१५, ३८६, ३८४), मुणइ यहाँ डा. सुदीप जैन ने दो बातें उठाई हैं, प्रथम शौरसेनी (३२), वुच्चइ (४५), कुव्वइ (८१, २८६, ३१९, ३२१, ३२५, ३४०) परिणमइ (७६,७९,८०) (ज्ञातव्य है कि समयसार के आगम साहित्य की भाषिक एकरूपता की और दूसरी णकार इसी संस्करण की गाथा क्र. ७७, ७८, ७९ में परिगमदि रूप भी और नकार की। "क्या सुदीप जी ! आपने शौरसेनी आगम मिलता है) इसी प्रकार के अन्य महाराष्ट्री प्राकृत के रूप जैसे साहित्य के उपलब्ध संस्करणों का भाषाशास्त्र की दृष्टि से कोई वेयई (८४), कुणई (७१, ९६, २८९, २९३, ३२२, ३२६), होइ प्रमाणिक अध्ययन किया है? यदि आपने किया होता तो आप ऐसा खोखला दावा प्रस्तुत नहीं करते? आप केवल णकार का (९४, ३०६,१९, ३४९, ३५८), करई (९४, २३७, २३८, ३२८, ३४८), हवई (१४१, ३२६, ३२९), जाणइ (१८५, ३१६, ३१९, ही उदाहरण क्यों देते हैं? वह तो महाराष्ट्री और शौरसेनी दोनों में । ३२०,३६१), बहइ (१८९), सेवइ (१९७),मरइ (२५७,२९०), सामान्य है। दूसरे शब्दरूपों की चर्चा क्यों नहीं करते हैं? " नीचे २४ (जबकि गाथा २५८ में मरदि है)। पावइ (२९१, २९२), धिप्पइ मैं दिगंबर शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों से ही कुछ उदाहरण दे रहा हूँ, जिनसे उनके भाषिकतत्त्व की एकरूपता का दावा कितना । (२९६), उप्पज्जइ (३०८), विणस्सइ (३१२, ३४५), दीसइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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