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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन कर्मबन्ध के हेतु
विवेचित किया जाता है। यह स्वभाव व्यवस्था है। स्वभाव या
कार्य भेद के कारण कर्मों के आठ भाग बनते हैं--ज्ञानवरणीय आत्मा और कर्म में सम्बन्ध होता है जिसके फलस्वरूप आत्मा में परिवर्तन होता है, वही बन्ध कहलाता है। आत्मा कर्म
कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्म, आयुष्य से सम्बन्धित होता है, किन्तु क्यों दोनों के बीच संबंध स्थापित
कर्म, नामक़र्म, गोत्रकर्म तथा अन्तरायकर्म। होता है? इसके लिए दर्शनों में मतभेद हैं। बौद्धदर्शन वासना या
स्थितिबन्ध - यह कर्म की काल-मर्यादा को इंगित करता संस्कार को कर्मबन्ध का कारण बताता है? न्याय-वैशेषिक ने है। कोई भी कर्म अपनी काल-मर्यादा के अनुसार ही किसी जीव मिथ्याज्ञान को कर्मबंध का हेतु माना है। इसी तरह सांख्य ने यह के साथ रहता है। जब उसका समय समाप्त हो जाता है, तब वह माना है कि प्रकृति और पुरुष को अभिन्न समझने का ज्ञान, जीव से अलग हो जाता है। यही कर्मबंध की स्थिति होती है। कर्मबंध बनाता है। वेदान्त दर्शन में अविद्या को कर्मबंध का अनभागबन्ध - यह कर्मफल की व्यवस्था है। कषायों कारण बताया गया है। जैन दर्शन में कर्मबंध के निम्न कारण की तीव्रता और मन्दता के अनकल ही कर्मों के फल भी प्राप्त स्वीकार किए गए हैं--
होते हैं। कषायों की तीव्रता से अशुभ कर्मफल अधिक एवं मिथ्यात्व - अतत्त्व को तत्त्व समझना
बलवान होते हैं। कषायों की मन्दता से शुभ कर्म फल अधिक अविरति - दोषों में लगे रहना, उससे विरत न होना।
एवं बलवान होते हैं। - कर्तव्य, अकर्तव्य के विषय में असावधानी। प्रमाद
कर्म बंध की ये चार अवस्थाएँ साथ ही होती हैं किन्तु
आत्मा और कर्म के सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए प्रदेश बंध कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ से ग्रसित रहना।
को पहला स्थान दिया गया है, क्योंकि जब तक कर्म और योग - मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों का होना।
आत्मा सम्बन्धित नहीं होंगे तब तक अन्य व्यवस्थायें सम्भव शरीर धारण करने वाला जीव ही प्रमाद और योग के नहीं हो पाएगी। कारण बन्ध में आता है। अतः प्रमाद और योग बंधन के कारण हैं। इसी तरह स्थानांग और प्रज्ञापना में कषाय यानी, क्रोध,
कर्म की विविध अवस्थाएँ मान, माया और लोभ को कर्मबन्ध का कारण माना गया है। कर्म के बन्धन, परिवर्तन, सत्ता, उदय, क्षय इत्यादि के
आधार पर कर्म की ग्यारह अवस्थाएँ मानी गई हैं-- कर्मबन्ध की प्रक्रिया
(१) बन्धन - कर्म और आत्मा का मिलकर एकरूप हो जाना लोक में सर्वत्र कर्म के पदगल होते हैं, ऐसी जैन दर्शन की
बंधन कहा जाता है। मान्यता है। जब जीव मन, वचन और काय से किसी प्रकार की प्रवृत्ति करता है, तो उसके अनुकूल कर्म-पुदगल उसकी ओर
(२) सत्ता - बद्ध कर्म-परमाणु उस समय तक आत्मा के
साथ रहते हैं, जबतक निर्जरा या कर्मक्षय की स्थिति न आ आकर्षित होते हैं। उसकी प्रवृत्ति में जितनी तीव्रता और मन्दता
जाए। कर्म का इस प्रकार आत्मा के साथ रहना सत्ता है। होती है, उसके अनुसार ही पुद्गलों की संख्या अधिक या कम होती है। कर्म-बन्ध भी चार प्रकार से होते हैं--
(३) उदय - कर्म की वह अवस्था, जब वह अपना फल देता
है, उदय के नाम से जाना जाता है। प्रदेशबन्ध - जीव के द्वारा ग्रहण किए गए कर्म-पुद्गलों
) उदीरणा - नियत समय से पहले कर्मफल देना उदीरणा का उसके साथ कर्म के रूप में बद्ध हो जाना प्रदेशबंध कहलाता है। इसको कर्म का निर्माणक माना गया है।
(५) उर्द्धवर्तना - कषायों की तीव्रता या मन्दता के कारण .. प्रकृतिबंध - प्रदेशबंध में कर्म - परमाणुओं के परिणाम
उसके फल बनते हैं, किन्तु स्थिति-विशेष के कारण पर विचार किया जाता है, किन्तु प्रकृतिबंध में कर्म के
फल में वृद्धि हो जाना उर्द्धवर्तना कहलाता है। स्वाभावानुकूल जीव में जितने प्रकार के परिवर्तन होते हैं, उन्हें andramodmornoonironidanandwanidroidna६ Horroraniramidrowondarororanirdowanorariorirand
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