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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथःसन्देश-वन्दन -
किनकि
कोटि कोटि वन्दनारे...
ज्ञान के आगार
पहले विद्वता के परीक्षण के लिए शास्त्रार्थ हुआ करता था। जिसका अपूर्ण अध्ययन हुआ करता था वह मैदान छोड़कर भाग जाया करता था और जो ज्ञानी समस्त शास्त्रों में पारंगत होता था उसे निर्णायक मंडल विजेता घोषित कर किसी उपाधि से सम्मानित करता था। वर्तमान काल में अब ऐसी कोई परंपरा दिखाई नहीं देती है।
मुझे स्मरण आता है कि किसी समय परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. उस समय मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी म.सा. रतलाम में विराजमान थे उस समय आपकी आयु भी कोई विशेष नहीं थी आप युवा ही थे। उस समय एक अन्य जैन आचार्य श्री सागरानंदसूरिजी म. भी विराजमान थे। उन्होंने आपको शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी। आपने उस समय उस चुनौती को सहर्ष स्वीकार कर लिया एक निर्णायक मंडल के समक्ष शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ दीर्घकाल तक शास्त्रार्थ चलता रहा आप अपने असीम ज्ञान भंडार और विवेक से उक्त आचार्य के तर्की का खंडन करते हुए स्वमत का मंडन करते रहे। अंत में अपनी पराजय होती देख उक्त आचार्य रातोरात रतलाम छोड़कर अन्यत्र चले गए। निर्णायक मंडल ने आपको विजेता घोषित करते हुए “पीताम्बर विजेता" की उपाधि में अलंकृत किया उस समय आपकी ज्ञान गरिमा की चारों और भूरि-भूरि प्रशंसा हुई।
ऐसे ज्ञान के आगार परम श्रद्धेय आचर्यदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की स्मृति में स्मारक ग्रंथ के प्रकाशन से अच्छी श्रद्धांजलि और क्या हो सकती है। उसके लिए तो ज्ञान की आराधना ही श्रेष्ठ मानी गई है। स्मृति ग्रंथ मील का पत्थर साबित हो यही मंगल मनीषा है इस अवसर पर पूज्य आचार्यश्री को कोटि-कोटि वंदन।।
प्रति,
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
माणकलाल कोठारी श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
या अध्यक्ष प्रधान सम्पादक श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
त्रिस्तुतिक श्री संघ जावरा (रतलाम) म. प्र. WANANENENENENINENENENENENINENENENENENEL (26) BRESENERENERENENERENEReseNENESENENENENE
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