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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन ऐसा प्रतीत होता है कि अंतिम दो अवयवों पर जैन तार्किकों व्याप्ति और पक्षधर्मिता को समझे बिना अनुमान का ज्ञान होना ने उतना बल नहीं दिया है। यही कारण है कि माणिक्यनंदी से मुश्किल है। इसलिए इन दोनों के संबंध में विभिन्न आचार्यों के पूर्व इन पर विवेचन प्राप्त नहीं होता।
मतों को जानने का प्रयास करेंगे। व्याप्ति शब्द की उत्पत्ति वि + शुद्धियाँ-विभक्तियाँ -
आप्ति से होती है। वि का अर्थ विशेष माना जाता है तथा आप्ति
का प्रयोग सबंध के लिए होता है। विशेष संबंध उसे कहते हैं जो अवयवों की संख्या निर्धारित करते समय भद्रबाह ने कहा
अपवादशून्य या व्याभिचाररहित होता है जैसे सूर्य और उसकी है कि आवश्यकता को देखते हुए अनुमान में दो, तीन, पाँच
किरणों के बीच का संबंध। जब भी सर्य होगा उसकी किरणें तथा दस अवयवों का प्रयोग हो सकते हैं। किन्तु दस अवयवों
होंगी और किरणें होंगी तो सूर्य भी होगा। हेतु का पक्ष में पाया के संबंध में भी उनका एक निश्चित विचार नहीं है। दस अवयवों
जाना पक्षधर्मता के नाम से जाना जाता है। पर्वत पर अग्नि है, के भी दो वर्ग हैं
क्योंकि पर्वत पर धूम है। पर्वत है और चूँकि पर्वत पर धूम है प्रथमवर्ग - प्रतिज्ञा - प्रतिज्ञाविशुद्धि
इसलिए वहाँ भी अग्नि होगी ऐसा अनुमान किया जाता है। धूम हेतु हेतुविशुद्धि
का पर्वत पर होना ही पक्षधर्मता है। जहाँ व्याप्ति होती है वहाँ
एक व्याप्य होता है और दूसरा व्यापक होता है। दृष्टान्त
दृष्टान्तविशुद्धि उपसंहार - उपसंहारविशुद्धि
व्युत्पत्ति के अनुसार वि पूर्वक अप धातु से कर्म अर्थ में
ण्यत् प्रत्यय करने पर व्याप्य तथा कर्ता अर्थ में ण्वुल् प्रत्यय निगमन - निगमनविशुद्धि
करने पर व्यापक शब्द सिद्ध होता है। व्याप्ति क्रिया द्वारा जिस यहाँ प्रत्येक अवयव में विशद्धि मिलाकर उसे एक से दो
विषय की सिद्धि की जाती है, वह व्याप्य और जिसके द्वारा कर दिया गया है। यह विशुद्धि क्या है? और क्यों यह अवयवों
उसको व्याप्त किया जाता है, उसे व्यापक कहते हैं। के साथ लग जाती है? इन प्रश्नों के उत्तर में ऐसा यदि प्रतिज्ञा, हेत आदि पंचावयवों के स्वरूप में कोई दोष हो. कोई आशंका व्याप्ति का लक्षण हो तो उन्हें शुद्ध या विशुद्ध करने से ही सही रूप में अनुमान की व्याप्ति के लिए अन्य शब्दों के प्रयोग भी हए हैं। अतः प्रतिष्ठा हो सकेगी। अन्यथा अनुमान में दोष आने की आशंका व्याप्ति को समझने के लिए हमें उन्हीं शब्दों के संदर्भ में अध्ययन होगी। इसलिए किसी भी अवयव का एक सामान्य रूप हो करना होगा। सकता है और दूसरा विशुद्ध रूप। ऐसा मान सकते हैं कि सामान्य
वैशेषिकदर्शन - महर्षि कणाद ने व्याप्ति के लिए प्रसिद्धि रूप में दोष की आशंका रहती है किन्तु विशुद्ध रूप में किसी
शब्द को काम में लिया है। उनके अनुसार प्रसिद्धि के आधार प्रकार का दोष या आशंका नहीं पाई जाती है।
पर ही हेतु अनुमति का बोधक होता है। यदि प्रसिद्धि न हो तो दूसरावर्ग - प्रतिज्ञा - प्रतिज्ञाविभक्ति
हेतु किसी काम का नहीं रह जाता। उन्होंने कहा है ०५ हेतुविभक्ति
'प्रसिद्धिपूर्वकत्वादपदेशस्य।' अर्थात् जो हेतु प्रसिद्धिपूर्वक है वही विपक्ष विपक्षप्रतिषेध
सद्हेतु है और उसी से ज्ञान होता है। यदि किसी हेतु में प्रसिद्धि
नहीं है तो वह अनपदेश हो जाता है - 'अप्रसिद्धोऽनपदेशः।' दृष्टान्त दृष्टान्तविभक्ति
अनपदेश से मतलब है हेत्वाभास। हेत्वाभास ज्ञानदायक नहीं आशंका - आशंकाप्रतिषेध
होता है। वह आभासमात्र होता है, क्योंकि उसमें व्याप्ति नहीं निगमन- निगमन विभक्ति।
होती है। इस तरह प्रसिद्धि और व्याप्ति समानार्थक शब्द हैं ऐसा अनुमान का आधार
ज्ञात होता है। सामान्य चिंतन के आधार पर भी हम ऐसा कह अनुमान व्याप्ति तथा पक्षधर्मिता पर आधारित होता है। सकते हैं कि प्रसिद्धि उसी की होती है जिसमें व्यापकता होती है
हेतु
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