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बौद्धपरंपरा के धर्मकीर्ति तथा उनके परवर्ती आचार्यों ने उदाहरण और उपनय को तर्क में स्थान दिया धर्मकीर्ति ने भी उदाहरण तथा उपनय को हेतु के साधर्म्य तथा वैधर्म्य में ही अन्तर्निहित माना है ।
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
जैनपरंपरा में उपनय की चर्चा अकलंक के तर्कप्रतिपादन से देखी जाती है। उनके विचारों में उपनयादिसमम्" तो मिलता है, किन्तु उपनय का कोई स्पष्टीकरण नहीं होता है। माणिक्यनंदी ने बड़े ही सरल ढंग से उपनय को परिभाषित किया है-हेतोरुपसंहारः उपनयः । १०
अर्थात् पक्ष में हेतु की पुनरुक्ति उपनय है। प्रभाचंद्र ने उपनय का निरूपण करते हुए कहा है कि साध्यधर्मी यानी पक्ष में कोई विशेष हेतु जब अविनाभाव से दर्शित होता है उसे उपनय की संज्ञा दी जाती है"। उन्होंने उपनय को उपमान भी कहा है। उपनयउपमानम् दृष्टांतधर्मिसाध्यधर्मिणोः सादृश्यात् ९२ । । उपनय के प्रकार
उपनय के दो प्रकार माने जाते हैं--साधर्म्य तथा वैधर्म्य | जिससे यह व्यक्त होता है- 'वैसा ही यह है' उसे साधर्म्य कहते हैं और जिससे यह ज्ञात होता है 'वैसा यह नहीं है' उसे वैधर्म्य कहते हैं। सिद्धसेन दिवाकर के प्रसिद्ध ग्रन्थ न्यायावतार से यह ज्ञात होता है कि जिसका धर्म सदृश हो वह साधर्म्य तथा जिसका धर्म विसदृश हो वह वैधर्म्य होता है।
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उद्योतकर, वाचस्पतिमिश्र, जयंतभट्ट, भासर्वज्ञ आदि आचायों ने भी माना है। वैशेषिक दर्शन के प्रशस्तपाद ने न्याय - दर्शन द्वारा प्रतिपादित पञ्चावयव को स्वीकार किया है किन्तु कुछ रद्दोबदल के साथ। उन्होंने जिन पञ्चावयवों को स्वीकार किया है। वे इस प्रकार हैं--प्रतिज्ञा, अपदेश, निदर्शन, अनुसंधान तथा प्रत्याम्नाय । जिसे गौतम ने निमगन कहा है उसी को प्रशस्तशाद ने प्रत्याम्नाय कहा है। मीमांसा - सूत्र और और शांकरभाष्य एवं कुमारिल तथा प्रभाकर के ग्रन्थो में अनुमान के स्वार्थ- परार्थ भेद उपलब्ध न होने के कारण अवयव - लक्षणों का स्पष्ट विवेचन नहीं किया गया है"। चूँकि निगमन परार्थानुमान का अंतिम भाग होता है, इसलिए इसका प्रतिपादन मीमांसादर्शन में नहीं हुआ है ऐसा ही मानना चाहिए। बौद्ध दर्शन के धर्मकीर्ति ने भी निगमन को कोई महत्त्व नहीं दिया है, बल्कि इसे असाधना कहा है।
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जैन - प्रमाण में निगमन का प्रारंभ माणिक्यनंदी से होता है। उन्होंने निगमन को परिभाषित करते हुए कहा है"
उपनय की उपयोगिता - जैनाचार्यों में ऐसे भी लोग हैं जो उपनय को उपयोगितारहित मानते हैं । इस संबंध में वादिदेवसूरि ने स्पष्ट कहा है कि जब धर्मी में सिर्फ साध्य-साधन के कहने से ही साध्य निश्चित हो जाता है तब उपनयय का प्रयोग तो सिर्फ दुहराना मात्र है। चूँकि ये उपनय और निगमन साध्य को प्रभावित करने में सक्षम नहीं है इसलिए प्रतिज्ञा और हेतु को अवयव में मान्यता मिलनी चाहिए" । अर्थात् उपनय और निगमन उपयोगी नहीं हैं।
निगमन ( निगमण ) महर्षि गौतम ने कहा है ९५ - हेत्वपदेशात् प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम्।
अर्थात् हेतु के कथन द्वारा प्रतिज्ञा का उपसंहारवाक्य निगमन है। इसमें प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण तथा उपनय को एकत्र करके सूत्रबद्ध करने की क्षमता होती है। निगमन के इस निरूपण को
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'प्रतिज्ञायास्तु निगमनम् ।' अर्थात् प्रतिज्ञा का पुनर्कथन निगमन है। जो कुछ प्रतिज्ञा के रूप में हम घोषित करते हैं, उसी को निगमन के रूप में फिर स्पष्टतः प्रस्तुत करते हैं। इसे ऐसे भी कह सकते कि जिस कथन की प्रतिज्ञा की जाती है उसे प्रमाणित करके निगमन की संज्ञा देते हैं । वादिदेवसूरि ने निगमन को इस प्रकार प्रकाशित किया है ९९.
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साध्यधर्मस्य पुनर्निगमनम् । यथानस्मादग्निर्न ।
अर्थात्, साध्य को दुहराना निगमन है। जो साध्य है, जिसको हम सिद्ध करना चाहते हैं, जिसे प्रमाणित करना चाहते हैं उसी को उपसंहार के रूप में दुबारा प्रस्तुत करना निगमन है। आचार्य है०००। प्रभाचंद्र ने कहा है कि प्रतिज्ञा हेतु, उदाहरण और उपय हेमचन्द्र का मत भी माणिक्यनंदी के विचार से मिलता हुआ को एकबद्ध करने वाला निगमन होता है। यह उक्ति न्याय दर्शन से प्रभावित जान पड़ती है, क्योंकि न्यायभाष्य में भी निगमन को ऐसा बताया गया है। किन्तु अनन्तवीर्य ने निगमन के संबंध में इस प्रकार कहा है१०२
'प्रतिज्ञायाः उपसंहारः - - साध्यधर्मविशिष्टत्वेनप्रदर्शनं निगमनम्। '
निगमन प्रतिज्ञा का पुनर्कथन है इसमें कोई शक नहीं, किन्तु वह कथनविशेष रूप से प्रतिपादित होता है । निगमन के संबंध में डा. कोठिया की उक्ति इस प्रकार है १०३ -
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