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यतीन्द्रसूरि मा आधृतिक सन्दर्भ में जैनधर्म - व्यक्ति से संसार के अन्य समस्त व्यक्तियों के एक ही ईश्वर की से तीव्र द्वन्द्व उत्पन्न होता है, क्योंकि जब वह विद्यार्थी परीक्षा में संतान होने के नाते उनके प्रति एक ओर समानता का व्यवहार उच्च अंक प्राप्त करने के लिए अधिक समय तक पढ़ना चाहता करने की अपेक्षा रखते हैं तथा दूसरी ओर ठीक इसके विपरीत, है, तब वह खेलकूद को अधिक समय नहीं दे सकता और यदि उससे अपने राष्ट्र, अपने धर्म, समाज व समूह को ही सर्वश्रेष्ठ वह अधिक समय अपने खेल में देता है तब वह परी मानने का भी आग्रह करते हैं। मूलरूप से ऐसी सामाजिक अंक नहीं पा सकता। ठीक इसी प्रकार, जब एक विद्यार्थी रात में भूमिकाओं से व्यक्ति में द्वन्द्व उत्पन्न स्वाभाविक ही है। ऐसे ही पढ़ना भी चाहे व साथ ही साथ शीघ्र ही सोने की भी उसकी समाज व्यक्ति को एक ओर सामाजिक अनुरूपता (Social इच्छा रहती हो, तब ऐसी स्थिति में उसमें दो आंतरिक इच्छाओं Conformity) के व्यवहार के लिए पढ़ाता है तथा दूसरी ओर के परस्पर विरोध से द्वन्द्व उत्पन्न होना स्वाभाविक ही होता है। आर्थिक स्तर पर उसे व्यक्तिवाद (Individualism) की शिक्षा
यहाँ हम उपासकदशांग में वर्णित सुरादेव नामक गृहस्थ देता है तथा उसे घोर प्रतिस्पर्धा भी सिखाता है। इसी प्रकार कहा जा
साधक का उदाहरण प्रस्तुत करके इस द्वन्द्व को स्पष्ट करना सकता है कि समाज व्यक्ति को एक ओर सहयोग तथा दूसरी ओर
चाहेंगे। सुरादेव आध्यात्मिक साधना में रत है। उसकी आंतरिक विरोध (प्रतिस्पर्धा) के परस्पर विरोधी आग्रहों से उन व्यक्तियों में
इच्छा है कि वह शुद्ध और संयमपूर्ण जीवन जिए। इसके लिए द्वन्द्व की स्थितियाँ उत्पन्न करता है। आधुनिक युग में जिस तरह से
साधनाक्रम में एक देव उसे यह धमकी देता है कि वह अपनी सामाजिक परिवर्तन हो रहा है, उसमें ऐसे मूल्यों के द्वन्द्व (Con
उग्र साधना से विरत हो जाए अन्यथा उसके शरीर में एक साथ flict in Values) साधारणत: अत्यधिक देखने को मिलते हैं।
१६ महारोग उत्पन्न कर देगा। जिसके कारण तीव्र वेदना के साथ जैन-दर्शन में सभी जीवों को सैद्धांतिक रूप से समान उसकी मृत्यु हो जाएगी। सुरादेव देव की इस धमकी से भयभीत समझा जाता है, परंतु व्यावहारिक स्तर पर इसमें भिन्नता भी हो जाता है और इससे बचने के लिए उसे पकड़ना चाहता है देखी जाती है। यद्यपि यह भिन्नता सामाजिक स्तर पर ही परिलक्षित और अपना व्रत भंग कर लेता है। सुरादेव की आंतरिक इच्छा है होती है, फिर भी यह द्वन्द्व की जनक तो है ही। वस्तुत: इस तरह कि वह आध्यात्मिक शुद्धि प्राप्त करे साथ ही साथ उसका शरीर के द्वन्द्व का उदाहरण जैन-चिंतन में नहीं मिलता है क्योंकि यहाँ । स्वस्थ रहे, लेकिन देव द्वारा उसके शरीर में सोलह महारोग एक सभी जीवों को निश्चयात्मक दृष्टि से समान माना गया है, लेकिन साथ उत्पन्न करने की धमकी उसे उनके कारण उत्पन्न महावेदना पर्यायदृष्टि से यहाँ जीवगत भेद दृष्टिगोचर होता है और इसका का बोध कराती है। वह इस वेदना से बचना चाहता है। कारण जीव के कर्मों को मान लिया जाता है । अतः इस रूप में फलस्वरूप वह इसे उत्पन्न करने वाले प्रमुख कारण देव को इसके कारण मनुष्य के मन में जो द्वन्द्व उत्पन्न होता है, वह दो पकड़ना चाहता है। अतः इसे दो आंतरिक इच्छाओं के परस्पर बाह्य आग्रहों के परस्पर विरोध का ही परिणाम माना जा सकता विरोध से उत्पन्न द्वन्द्व का उदाहरण माना जा सकता है। है। यही कारण है कि जैनों में सभी दुःखों से मुक्ति के लिए मोक्ष तानी
चेतन स्तरीय द्वन्द्व - Lewin के अनुसार व्यक्ति के चेतन द्वन्द्व पद को स्वीकार किया है, लेकिन इसकी प्राप्ति व्यक्तिगत साधना सी
के भी प्रायः निम्नलिखित चार रूप होते हैं-- से ही संभव है।
(i) उपागम-उपागम द्वन्द्व - ऐसे द्वन्द्व को आकर्षण-आकर्षण (iii) दो आंतरिक आवश्यकताओं के परस्पर विरोध से द्वन्द्व- दन्ट भी कहते हैं. इसके अंतर्गत व्यक्ति की दविधा यह रहती है
___ व्यक्ति कभी-कभी परस्पर रूप से विरोधी अपनी ही कि वह दो समान लक्ष्यों में से किस लक्ष्य को स्वीकार करे और आंतरिक आवश्यकताओं के द्वन्द्व के जाल में फँस जाता है। किसे अस्वीकार करे, क्योंकि स्थिति ऐसी है कि वह उन दोनों में उदाहरणार्थ, जब एक विद्यार्थी परीक्षा में भी उच्च श्रेणी के अंक से केवल एक को स्वीकार कर सकता है तथा एक के स्वीकार प्राप्त करना चाहता है व साथ ही साथ खेलकूद में भी अपनी करने पर यहाँ दूसरे लक्ष्य की प्राप्ति स्वयं ही समाप्त हो जाती प्रबल रुचि रखना चाहता है, तब ऐसी स्थिति में एक सामान्य है। जैसे एक नवयुवती के सामने विवाह के लिए दो ऐसे उत्तम विद्यार्थी के लिए ऐसी दो परस्पर रूप से विरोधी आवश्यकताओं प्रस्ताव विचाराधीन होते हैं, जो कि सब दृष्टियों से एकदम आकर्षक పరవాడతారురురురురురురువారmade 6 సారయుతంగురువారం సాయంతirationుసారంగ
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