________________
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ रूपों के आधार पर निम्नलिखित ढंग से किया जा सकता है-(क) स्त्रोतों (Sources) के आधार पर वर्गीकरण
(i) आंतरिक आवश्यकताओं तथा बाह्य प्रतिरोधों में द्वन्द्व । (ii) दो बाह्य आग्रहों के परस्पर विरोध से द्वन्द्व । (iii) दो आंतरिक आवश्यकताओं के परस्पर विरोध से द्वन्द्व । (ख) चेतन के आधार पर वर्गीकरण
-
-
-
(i) उपागम उपागम द्वन्द्व (Approach Approach Conflict) (ii) परिहार - परिहार द्वन्द्व (Avoidance - Avoidance Conflict) (iii) उपागम - परिहार द्वन्द्व (Approach Avoidance Conflict) (iii) दो हरा उपागम - परिहार द्वन्द्व (Double Approach Avoidence Conflict)
(ग) अचेतन के आधार पर वर्गीकरण
(i) इदम् तथा अहम् के द्वन्द्व (Conflict between Id and Ego ) (ii) अहम् तथा पराहम् के द्वन्द्व (Conflict between Ego and super Ego)
(iii) इदम् तथा पराहम् के द्वन्द्व (Conflict between Id and super Ego)
द्वन्द्वों के इन विभिन्न रूपों में कठोर आधार पर मौलिक अंतर नहीं होता है, बल्कि इनमें पर्याप्त मात्रा में पारस्परिक रूप से Overlapping ही रहता है । द्वन्द्वों के इन विभिन्न रूपों के विधिवत् वर्णन करने से पहले यहाँ पर द्वन्द्व के स्रोतों का विवेचन करना अति आवश्यक प्रतीत होता है।
Jain Education International
द्वन्द्व के विभिन्न स्त्रोत व्यक्ति में प्रायः द्वन्द्वों के मुख्य स्त्रोत निम्नलिखित ढंग से होते हैं
(i) आंतरिक आवश्यकताओं तथा बाह्य प्रतिरोधों में टकराव से उत्पन्न द्वन्द्व - व्यक्ति अपनी विभिन्न जैविक आवश्यकताओं व आवेगों की पूर्ति अपने बाह्य पर्यावरण के अंतर्गत ही करता है, परंतु बाह्य पर्यावरण के इस संबंध में अनेक प्रतिरोध अधिकांशतः भौतिक अवरोधों, सामाजिक परंपराओं तथा सांस्कृतिक मूल्यों के रूप में होते हैं और वे व्यक्ति के आवेगों की पूर्ति तथा संतुष्टि गलत तरीकों से व्यक्त करने की अनुमति
आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म
नहीं देते। उदाहरणार्थ परिवार में जब एक बड़ा बालक किसी दूसरे छोटे बालक से खिलौना छीन लेता है तब छोटे बालक को कभी-कभी एकदम क्रोध आ जाता है, और वह बड़े बालक से अपना खिलौना न मिलने पर उसको मारने व गाली देने लगता है परंतु तुरंत ही माता-पिता या घर-परिवार के अन्य व्यक्ति उसके ऐसे असभ्य व्यवहार अथवा क्रोध के आवेगों की गलत रूप से अभिव्यक्ति से मना करते हैं। इस प्रकार यहाँ बालक के लिए बाह्य प्रतिरोधों के कारण आंतरिक आवेगों की पूर्ति न होने पर द्वन्द्व उत्पन्न होता है। बालक के लिए आरंभिक जीवन में ऐसी अनेक स्थितियाँ आती हैं, परंतु धीरे-धीरे समय बीतने के साथ-साथ उनका रूप समाजीकृत होता चला जाता है तथा फिर उनमें प्रायः ऐसा तीव्र द्वन्द्व उत्पन्न नहीं होने पाता ।
जैन-चिंतकों ने भी इस प्रकार के द्वन्द्व का उल्लेख किया है। उनका यह मानना है कि यह द्वन्द्व बाह्य एवं आंतरिक संवेगों में पारस्परिक संघर्षों के फलस्वरूप उत्पन्न होता है । उपासकदशांग में
'चुल्लशतक नामक गृहस्थ साधक इसी द्वन्द्व से पीड़ित व्यक्ति है। यद्यपि वह आत्मविकास की साधना में रत रहता है, लेकिन देव द्वारा बाह्य वस्तु (धन, सम्पत्ति आदि) के नष्ट करने की धमकी से वह भयभीत हो जाता है। इससे बचने हेतु वह देव को पकड़ना चाहता है और अपने व्रत को भंग कर लेता है। धन, सम्पत्ति आदि बाह्य साधन हैं जो व्यवहारिक रूप में मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। इच्छाएं बाह्य और आंतरिक दोनों होती है। यहाँ चुल्लशतक बाह्य वस्तु को बचाने के लिए आंतरिक उद्वेग से ग्रसित होकर देव को पकड़ना चाहता है क्योंकि उसके मन में यह भय बैठ जाता है कि धन-सम्पत्तिविहीन व्यक्ति शक्तिहीन होता है । शक्तिहीन होकर संघर्ष में जीना नहीं चाहता । उस समय वह सोचता है कि देव को वह पकड़ लेगा और अपने धन का अपहरण नहीं होने देगा। लेकिन वह इस मिथ्या माया से ठगा जाता है तब वह पुनः अपनी व्रताराधना में ठीक उसी तरह प्रवृत्त हो जाता है, जैसे कि परिपक्व बालक समाजगत समस्याओं को समझ लेने पर इस तरह के द्वन्द्व से बचने लगता है।
१५
(ii) दो बाह्य आग्रहों के परस्पर विरोध से द्वन्द्व - समाज कभी-कभी व्यक्ति के सम्मुख परस्पर रूप से विरोधी भूमिकाएँ प्रस्तुत करता है, तथा उनका परिपालन करने के लिए भारी आग्रह करता है । उदाहरणार्थ, समाज के नैतिक व धार्मिक उपदेश
For Private Personal Use Only
ট
www.jainelibrary.org