________________
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासअभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा चैत्रगच्छीय मलयचन्द्रसूरि की का. प्र. चैत्रगच्छ सलषणपुरा भ. श्रीज्ञानदेवसूरिभिः।।" गुरु परंपरा इस प्रकार निश्चित की जा चुकी है--
वासुपूज्य की धातुप्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
प्रतिष्ठास्थान--आदिनाथ जिनालय, जामनगर हरिप्रभसूरि
चैत्रगच्छीय धारणपद्रीय (धारापद्रीय) शाखा के
लक्ष्मीसागरसूरि के शिष्य ज्ञानदेवसूरि (वि.सं. १५२७-१५३०, धर्मदेवसूरि (वि.सं. १३९१-१४३०)
प्रतिमालेख) का उल्लेख मिलता है। ये दोनों ज्ञानदेवसूर एक ही
व्यक्ति है, या अलग-अलग, इस संबंध में निश्चयात्मक रूप से पार्श्वचन्द्रसूरि (वि.सं. १४४६ - १४६६) ।
कुछ भी कह पाना कठिन है। मलयचन्द्र सूरि (वि.सं. १४७४ - १५०३)
६-७ कम्बोइया शाखा और अष्टापदशाखा
राजगच्छपट्टावली (रचनाकार, अज्ञात, रचनाकाल वि.सं. की समसामयिकता के आधार पर पार्श्वचन्द्रसूरि के शिष्य
१६वीं शती का अंतिम चरण) में चैत्रगच्छ की इन दो शाखाओं मलयचन्द्रसूरि और चैत्रगच्छ की चन्द्रसामीय शाखा के
का उल्लेख है, परंतु किन्हीं अन्य साक्ष्यों से उक्त शाखाओं के लक्ष्मीसागरसूरि के गुरु मलयचन्द्रसूरि को एक ही व्यक्ति माना
बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती। जा सकता है। लक्ष्मीसागरसूरि के पश्चात् इस शाखा का कोई उल्लेख नहीं मिलता, अत: यह कहा जा सकता है कि उसके
८. शार्दूलशाखा - चैत्रगच्छ की इस शाखा का एकमात्र लेख बाद इस शाखा का अस्तित्व समाप्त हो गया। चैत्रगच्छ की यह
वि.सं. १६८६/ई. सन् १६३० का है।५ इस लेख में राजगच्छ के
एक अन्वय के रूप में चैत्रगच्छ की उक्त शाखा का उल्लेख है। शाखा चन्द्रसामीय क्यों कहलाई, इस संबंध में हमें कोई सूचना
इस शाखा के संबंध में अन्यत्र किसी भी प्रकार का कोई विवरण प्राप्त नहीं होती।
अनुपलब्ध है। ५.सलषणपुराशाखा---इस शाखा से संबद्ध केवल दो प्रतिमायें
९.देवशाखा - जैसा कि पूर्व में हम देख चुके हैं,दशवैकालिक मिली हैं, जो वि.सं. १५३०/ई. सन् १४७४ में एक ही तिथि में - एक ही मुहूर्त में और एक ही आचार्य द्वारा प्रतिष्ठापित हुई हैं। ये .
सूत्र की वि.सं. १७६८/ई. सन् १७१२ की प्रतिलिपित प्रशस्ति में
चैत्रगच्छ की देवशाखा का उल्लेख है।१६ इस शाखा के प्रवर्तक प्रतिष्ठापक आचार्य हैं चैत्रगच्छीय सलषणपुरा शाखा के आचार्य
कौन थे, यह कब अस्तित्व में आयी इस बारे में कोई विवरण ज्ञानदेवसूरि। आचार्य विजयधर्मसूरि१३ ने इन लेखों की वाचना
प्राप्त नहीं होता। चैत्रगच्छ तथा उसकी किसी शाखा का उल्लेख इस प्रकार दी है--
करने वाला अंतिम साक्ष्य होने से यह महत्त्वपूर्ण है। ___संवत् १५३० वर्षे पो (पौ)ष वदि६ रवौ श्रीश्रीमालज्ञातीय
ऐसा प्रतीत होता है कि भर्तपुर (भटेवर) थारापद्र (थराद) श्रे. देपाल भा. हरपू सुत भूमाकेन भा. माल्हणदे हेदान (नि)
और सलषणपुर में चैत्रगच्छ का उपाश्रय बन जाने पर वहाँ के मित्तं सुसुवसहितेन स्वये (श्रे) यस (से) श्रीवासुपूज्यबिंबं क.
चैत्रगच्छीय आचार्यों के साथ उक्त स्थानवाचक विशेषण जोड़ा (का.) श्रीचे (चै)त्रगछे (च्छे) श्रीज्ञानदेवसूरिभिः प्रतिष्ठित (ष्ठितं)
जाने लगा होगा। इनमें से सलषणपुरा शाखा का अस्तित्व तो त...न्य. गाम...."
अल्पकाल में ही समाप्त हो गया, किन्तु भर्तपरीय और थारापद्रीय वासुपूज्य की धातुप्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
शाखा का लगभग २०० वर्षों तक अस्तित्व बना रहा। प्रतिष्ठास्थानआदिनाथ जिनालय, जामनगर
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता हैकि यह गच्छ ई. सन् "संवत १५३० वर्षे पौष वदि ६, रवी श्रीश्रीमालज्ञा. श्रे. की १२ वीं शती के प्रारंभ में अस्तित्व में था और १८ वीं शती गेला भा. पूरी स. रत्नाकेन भा. रूपिणि द्वि. भा. कीरूहितेन के प्रथम चरण तक विद्यमान रहा। लगभग ६०० वर्षों के लंबे स्वपितृपूर्वजन, (नि) मितं (त्तं) आत्मश्रेयार्थं श्रीवासुपूज्यबिंबं इतिहास में इस गच्छ के मुनिजनों (गुणाकरसूरि, चारुचन्द्रसूरि
Abramontimerimangonomorransemen Granarod te promenerannsacramenrG
GAGDAGA
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org