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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व
समाज-सुधारक आचार्य भगवन्
समरथमल लोढा, जावरा....
धर्मगुरु अपने उपदेशों के माध्यम से समाज में फैले अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर ज्ञानरूपी प्रकाश फैलाते हैं। वे समाज में व्याप्त फूट-वैमनस्य को दूर कर एकता स्थापित करने के लिए उपदेश देते हैं। समाज में व्याप्त व्यसनों को दूर करने के लिए वे उनसे होने वाली हानियों के प्रति समाज को सदैव जागृत करते रहते हैं। उनका कार्य होता है समाज में व्याप्त बुराइयों, व्यसनों, रूढ़ियों आदि की हानियाँ बताते हुए उनसे बचने के लिए तथा उनका त्याग करने के लिए समाज को प्रेरणा प्रदान करना। अब सवाल यह है कि समाज उनके उपदेशों से प्रभावित होकर अपने आप में कितना सुधार करता है ? यह
ज पर निर्भर करता है। एक कहावत है - 'घोडे को पानी के पास ले जाया जा सकता है तथा किन्तु उसे पानी पीने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।' इस कहावत के अनुसार धर्मगुरु समाज को उचित मार्गदर्शन प्रदान कर सकते हैं, करते हैं। अपनी बात को मनवाने के लिए वे किसी को बाध्य नहीं करते। उन्होंने अपना कार्य कर दिया। यह तो हमारा अर्थात् समाज का दोष है कि उनके सम्यक् उपदेश को हम अनदेखा कर रहे हैं। फिर भी कुछ भव्य प्राणी ऐसे होते हैं, जो अपने अपने धर्मगुरु की बात को, उनके उपदेश को आत्मसात् कर दोषों का त्याग कर अपने जीवन में परिवर्तन ले आते हैं।
आचार्य भगवन् श्री मद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के उपदेशों से प्रेरित होकर कुछ स्थानों पर वर्षों से चली आ रही फूट समाप्त हुई और वहाँ एकता स्थापित हुई तो कुछ स्थानों पर अजैन भाइयों ने आपके उपदेशों से प्रभावित होकर मद्य एवं मांस का त्याग किया। आप का यह रूप आपको एक समाज सुधारक के रूप में प्रतिष्ठित करता है। यहाँ प्रस्तुत हैं इस प्रकार के कुछ उदाहरण :
राजगढ़ में गुरु-मंदिर की प्रतिष्ठा होनी थी, किन्तु परस्पर वैमनस्य के कारण यहाँ एकता का अभाव था। जब तक आपस का झगड़ा समाप्त नहीं होता, तब तक प्रतिष्ठा नहीं होती। आप झकणावदा से बिहार कर राजगढ़ पधारे और कुसम्प मिटाने के प्रयास शुरू कर दिए। आपके तेजस्वी व्यक्तित्व के प्रभाव से एकता स्थापित हो गई और वि.सं. १९८१ में गुरु-मंदिर की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। इसी प्रकार वि.सं. १९८४ में आकोली श्री संघ का कुसम्प भी आपने प्रभाव व प्रेरणा से दूर किया।
वि.सं. २००८ की बात है। आप अपने शिष्य परिवार सहित भाण्डवपुर तीर्थ से थराद की ओर विहार करते हुए बागोड़ा पधारे। उस समय बागोड़ा में जैन मतावलम्बियों के साठ घर थे। आप के पधारने पर बागोड़ावासियों ने आप का भव्य स्वागत किया। बागोड़ा से लगभग १८-२० किलोमीटर की दूरी पर मोरसिम नामक ग्राम है। इन दोनों श्री संघों में लगभग सत्तर वर्ष से किसी बात को लेकर झगड़ा था। ये दोनों गाँव चौहान पट्टी में गिने जाते हैं। यह झगड़ा इतना बढ़ा कि पूरी चौहान पट्टी का झगड़ा हो गया। इस झगड़े को समाप्त करने के लिए दोनों ग्रामों के श्री संघों ने अनेक बार प्रयास भी किए, किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिल पाई थी।
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