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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ : सन्देश-वन्दत कोटि कोटि वन्दनारे... कीकडीकि
कुशल प्रवचनकार। विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन कर ज्ञान प्राप्त किया और प्रकाण्ड विद्वान बन गए किन्तु प्राप्त ज्ञान का यदि आप वितरण नहीं कर पाए तो उसका क्या लाभ आपकी विद्वता का लाभ किसी को नहीं मिल पाया यदि विद्वता है और उसे अभिव्यक्त कर वितरण करने की क्षमता है तो प्राप्त ज्ञान दिन दूना रात चौगुना वृद्धि पाता जावेगा। व्याख्यान देना भी एक कला है प्रत्येक व्यक्ति फिर भले ही वह अच्छा विद्वान ही क्यों न हो जरूरी नहीं कि वह एक अच्छा वक्ता भी हो। कम पढ़ा लिखा अल्प अध्ययनशील व्यक्ति अच्छा वक्ता हो सकता है, जिसके पास शास्त्रीय ज्ञान हो और वह उत्तम वक्ता हो तो फिर बात ही क्या।
परम पूज्य आचार्य श्रीमद् विजयसूरिश्वरजी म.सा. के पास असीम शास्त्रीय ज्ञान था और वक्त्व कला के भी वे अद्भुत कलाकार थे। ज्ञान और अभिव्यक्ति का उनमें अनुपम संयोग था, जिन्होंने उनके प्रवचन सुने हैं जानते हैं कि जब आचार्य श्री प्रवचन फरमाते थे तो श्रोता मंत्र मुग्ध हो जाते थे। श्रोताओं को प्रवचन श्रवण में अपने अस्तित्व का ही ज्ञान नहीं रहता था। वे तो तब होश में आते थे जब आचार्यश्री का प्रवचन समाप्त हो जाता।
वे अन्यनस्क हो तब इधर-उधर देखकर अपनी स्थिति का आकलन करते। अपने प्रवचन के विषय को भी आप कुशलता के साथ उसी प्रवाह के साथ मोड़ देने में सक्षम थे। आपके प्रवचन में श्रोता डूब के स्थान पर आनंद की अनुभूति करता था। आपके प्रवचन में शास्त्रीय उद्धारणों के साथ प्रसंगानुसार कलात्मक दृष्टान्त भी होते थे। इससे कठिन विषय भी बोधगम्य हो जाता था। आपके प्रवचन संग्रह देखने पर इस बात की पुष्टि होती है।
परम पूज्य आचार्यश्री के पावन चरणों में वंदन करते हुए मैं स्मृति ग्रंथ प्रकाशन की योजना की सफलता की लक्ष्य की गहराई से मंगल कामना करता हूं। प्रति, ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
संघवी सुमेरमल रायचंद विनोदकुमार दिलीपकुमार श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
हंसमुखकुमार बेटापोता हंजारीमलजी श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
सूरजमलजी सियाणा संघवी
प्रधान सम्पादक
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