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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म -
नाम का धर्म है।
२७३) । वस्तुतः यहाँ हरिभद्र ने मन्दिर निर्माण, प्रतिष्ठा, पूजा आदि
कार्यों में उलझने पर मुनि-वर्ग का जो पतन हो सकता था, उसका (२) स्थापनाधर्म - जिन क्रियाकाण्डों को धर्म मान लिया पूर्वानुमान कर लिया था । यति-संस्था के विकास से उनका यह अनुमान जाता है, वे वस्तुतः धर्म नहीं धार्मिकता के परिचायक बाह्य रूप मात्र सत्य ही सिद्ध हुआ । इस सम्बन्ध में उन्होंने जो कुछ लिखा उसमें एक हैं । पूजा, तप आदि धर्म के प्रतीक हैं, किन्तु भावना के अभाव में वे ओर उनके युग के समाज के प्रति उनकी आत्म-पीड़ा मुखर हो रही है वस्तुत: धर्म नहीं हैं । भावनारहित मात्र क्रियाकाण्ड स्थापना धर्म है। तो दूसरी ओर उसमें एक धर्मक्रान्ति का स्वर भी सुनाई दे रहा है । जिन
द्रव्य को अपनी वासना-पूर्ति का साधन बनाने वाले उन श्रावकों एवं (३) द्रव्यधर्म - वे आचार-परम्पराएँ जो कभी धर्म थी या तथाकथित श्रमणों को ललकारते हुए वे कहते हैं - जो श्रावक जिनधार्मिक समझी जाती थीं, किन्तु वर्तमान सन्दर्भ में धर्म नहीं हैं। प्रवचन और ज्ञान-दर्शन गुणों की प्रभावना और वृद्धि करने वाले जिनसत्वशून्य अप्रासंगिक बनी धर्म-परम्पराएँ ही द्रव्यधर्म हैं। द्रव्य का जिनाज्ञा के विपरीत उपयोग करते हैं, दोहन करते हैं अथवा
भक्षण करते हैं, वे क्रमश: भवसमुद्र में भ्रमण करने वाले, दुर्गति में जाने (४) भावधर्म - जो वस्तुतः धर्म है वही भाव धर्म है । यथा- वाले और अनन्त संसारी होते हैं ।३५ इसी प्रकार जो साधु जिनद्रव्य का समभाव की साधना, विषयकषाय से निवृत्ति आदि भावधर्म हैं। भोजन करता है वह प्रायश्चित् का पात्र है। वस्तुतः यह सब इस तथ्य
हरिभद्र धर्म के इन चार रूपों में भावधर्म को ही प्रधान मानते का भी सूचक है कि उस युग में धर्म साधना का माध्यम न रहकर वासनाहैं। वे कहते हैं कि जिस प्रकार तक्रादि के संयोग, मन्थन की प्रक्रिया पूर्ति का माध्यम बन रहा था। अत: हरिभद्र जैसे प्रबुद्ध आचार्य के लिये
और अग्नि द्वारा परितापन के फलस्वरूप दूध रूपी आत्मा घृत रूप उसके प्रति संघर्ष करना आवश्यक हो गया। परमात्मतत्त्व को प्राप्त होता है ।३२ वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह सम्बोधप्रकरण में हरिभद्र ने अपने युग के जैन-साधुओं का जो जो भागवत धर्म है, वही विशुद्धि का हेतु है । यद्यपि हरिभद्र के इस चित्रण किया है वह एक ओर जैन-धर्म में साधु-जीवन के नाम पर जो कथन का यह आशय भी नहीं लेना चाहिए कि हरिभद्र कर्मकाण्ड के कुछ हो रहा था उसके प्रति हरिभद्र की पीड़ा को प्रदर्शित करता है तो पूर्णत: विरोधी हैं। उन्होंने स्वयं ही सम्बोधप्रकरण की लगभग ५०-६० दूसरी ओर यह भी बताता है कि हरिभद्र तत्कालीन परिस्थितियों के मूक गाथाओं में आत्मशुद्धि निमित्त जिनपूजा और उसमें होने वाली आशातनाओं दर्शक और तटस्थ समीक्षक ही नहीं थे, अपितु उनके मन में सामाजिक का सुन्दर चित्रण किया है । मात्र उनका प्रतिपाद्य यह है कि इन और धार्मिक क्रान्ति की एक तीव्र आकांक्षा भी थी। वे अपनी समालोचना कर्मकाण्डों का मूल्य भावना-शुद्धि के आधार पर ही निर्धारित होता के द्वारा जनसमाज में एक परिवर्तन लाना चाहते थे । है।३४ यदि धार्मिक जीवन में वासना और कषायों का शमन और आत्म- तत्कालीन तथाकथित श्रमणों के आचार-व्यवहार पर कटाक्ष विशुद्धि नहीं होती है तो कर्मकाण्ड का कोई मूल्य नहीं रह जाता है। करते हुए वे लिखते हैं कि जिन-प्रवचन में पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, वस्तुत: हरिभद्र साध्य की उपलब्धि के आधार पर ही साधन का संसक्त और यथाछन्द (स्वेच्छाचारी)- ये पाँचों अवन्दनीय हैं । यद्यपि ये मूल्यांकन करते हैं। वे उन विचारकों में से हैं जिन्हें धर्म के मर्म की लोग जैन मुनि का वेश धारण करते हैं, किन्तु इनमें मुनित्व का लक्षण नहीं पहचान है, अत: वे धर्म के नाम पर ढोंग, आडम्बर और लोकैषणा की है। मुनि-वेश धारण करके भी क्या-क्या दुष्कर्म करते थे, इसका सजीव पूर्ति के प्रयत्नों को कोई स्थान नहीं देना चाहते हैं । यही उनकी चित्रण तो वे अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण के द्वितीय अधिकार में 'कुगुरु क्रान्तधर्मिता है।
गुर्वाभास पार्श्वस्थ आदि स्वरूप' के अर्न्तगत १७१ गाथाओं में विस्तार से हरिभद्र के युग में जैन-परम्परा में चैत्यवास का विकास हो करते हैं। इस संक्षिप्त निबन्ध में उन सबकी समग्र चर्चा एवं व्याख्या करना चुका था । अपने आपको श्रमण और त्यागी कहने वाला मुनिवर्ग तो सम्भव नहीं है, फिर भी हरिभद्र की कठोर समालोचक दृष्टि का परिचय जिनपूजा और मन्दिर निर्माण के नाम पर न केवल परिग्रह का संचय कर देने के लिये कुछ विवरण देना भी आवश्यक है। वे लिखते हैं, ये मुनिरहा था, अपितु जिनद्रव्य (जिन-प्रतिमा को समर्पित द्रव्य) का अपनी वेशधारी तथाकथित श्रमण आवास देने वाले का या राजा के यहाँ का भोजन विषय-वासनाओं की पूर्ति में उपयोग भी कर रहा था। जिन-प्रतिमा और करते हैं, बिना कारण ही अपने लिये लाए गए भोजन को स्वीकार करते जिन-मन्दिर तथाकथित श्रमणों की ध्यान-भूमि या साधना-भूमि न बनकर हैं, भिक्षाचर्या नहीं करते हैं, आवश्यक कर्म अर्थात् प्रतिक्रमण आदि श्रमणभोग-भूमि बन रहे थे । हरिभद्र जैसे क्रांतिदर्शी आचार्य के लिये यह सब जीवन के अनिवार्य कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं, कौतुक कर्म, भूत-कर्म, देख पाना सम्भव नहीं था, अत: उन्होंने इसके विरोध में अपनी कलम भविष्य-फल एवं निमित्त-शास्त्र के माध्यम से धन-संचय करते हैं, ये घृतचलाने का निर्णय लिया। वे लिखते हैं - द्रव्य-पूजा तो गृहस्थों के लिये मक्खन आदि विकृतियों को संचित करके खाते हैं, सूर्य-प्रमाण भोजी होते है, मुनि के लिए तो केवल भाव-पूजा है। जो केवल मुनिवेशधारी हैं, हैं अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक अनेक बार खाते रहते हैं, न तो साधूमुनि-आचार का पालन नहीं करते हैं, उनके लिए द्रव्य-पूजा जिन- समूह (मण्डली) में बैठकर भोजन करते हैं और न केशलुंचन करते हैं।७ प्रवचन की निन्दा का कारण होने से उचित नहीं है (सम्बोधप्रकरण, १/ फिर ये करते क्या हैं ? हरिभद्र लिखते हैं कि वे सवारी में घूमते हैं,
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