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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जनवर्गप्रतिकूल परिस्थितियों का उस पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। रोगों के अन्य कारण एवं उपचार की सीमाएँ - उसका प्रयास नवीन कर्मों का क्षय कर आत्मा को नर से
रोग होने के मुख्य कारण हमारे पूर्वकृत संचित अशुभ नारायण बनाने का होता है।
कर्मों का उदय, हमारी अप्राकृतिक जीवन-पद्धति, अर्थात् पूर्वकृत कर्मों का वर्तमान जीवन से संबंध - असंयमित, अनियमित, अनियंत्रित, अविवेकपूर्ण अपनी क्षमताओं
के प्रतिकूल शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक अशुभ प्रवृत्तियाँ जन्म के साथ मृत्यु निश्चित है। पूर्वकृत पुण्यों के आधार
हैं। सम्यक् दर्शन होने के पश्चात् रोग होने पर व्यक्ति रोग का पर हम प्राण-ऊर्जा अर्थात् श्वासों के रूप में आयुष्य का जो
कारण अपनी गलतियों को मानेगा और धैर्य, सहनशीलता खजाना लेकर आते हैं प्रतिक्षण कम होता जाता है। जीवन के
समभावपूर्वक उनको सहन कर कमों से हल्का होना चाहेगा। अंतिम समय तक उस संचित संगृहीत प्राण-ऊर्जा को संतुलित
रोग की स्थिति में हाय-हाय कर, चिल्लाकर सबको परेशान एवं नियंत्रित कैसे रखा जाए, यह स्वास्थ्य की मूलभूत आवश्यकता
कर, नवीन कर्मों का बंध नहीं करेगा। जिससे कर्मों का रोग है। पूर्वकृत कों के आधार पर ही हमें अपना स्वास्थ्य, सत्ता,
सदैव के लिए चला जाएगा। परंतु अपरिहार्य कारणों से धैर्य एवं साधन, संयोग अथवा वियोग मिलते हैं। अनुकूल अथवा प्रतिकूल
सहनशीलता के अभाव में अगर उपचार भी कराएगा तो इस परिस्थितियाँ बनती हैं। परंतु कभी कभी पूर्वकृत पुण्यों के उदय
बात का अवश्य विवेक रखेगा कि उपचार के लिए जो साधन, से व्यक्ति को मनचाहा रूप, सत्ता, बल, साधन एवं सफलताएँ
साध्य एवं सामग्री कार्य में ली जा रही है, वह यथासंभव पवित्र लगातार मिलने लगती हैं। प्रतिकूल परिस्थितियाँ, वियोग, रोग
हो। यदि उपचार कर्मबंध का कारण बने तो कर्जा चुकाने के यदि उत्पन्न न होते तो व्यक्ति अज्ञानवश अभिमानपूर्वक कर्म -
लिए ऊँची ब्याज की दर पर नया कर्जा लेने के समान होगा। सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता। कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए हमें चिंतन करना होगा कि वे कौन से कारण हैं जिनसे मिथ्यात्व सब पापों की जड़ - बहुत से बालक जन्म से ही विकलांग अथवा रोगग्रस्त होते हैं?
आज अज्ञानवश अहिंसाप्रेमी उपचार के नाम पर हिंसक कोई गरीब के घर में कोई अमीर के घर में जन्म क्यों लेते हैं?
दवाइयों की गवेषणा तक नहीं करते। भूल का प्रायश्चित्त होता कोई बुद्धिमान तो कोई मूर्ख क्यों बने हैं? भारतीय संविधान में
है। जानते हुए भूलें करना एवं बाद में प्रायश्चित्त लेकर दोषों से प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्र का सर्वोच्च पद प्राप्त करने का अधिकार
अपना शुद्धिकरण करना कहाँ तक तर्कसंगत है। वे प्रभावशाली, है, परंतु चाहते हुए अथवा प्रयास करने के बावजूद भी सभी
स्वावलंबी, अहिंसक चिकित्सा-पद्धतियों को सीखने, समझने राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन पाते? संसार की सारी
एवं अपनाने हेतु क्यों नहीं प्रेरित होते? ऐसी पद्धतियों के प्रशिक्षण, विसंगतियाँ एवं हमारे चारों तरफ का वातावरण हमें पुनर्जन्म एवं
प्रचार-प्रसार एवं शोध हेतु जनसाधारण को प्रेरणा क्यों नहीं कों की सत्ता के बारे में निरंतर सजग और सतर्क कर रहे हैं।
देते? अहिंसा-प्रेमियों द्वारा सेवा के नाम पर हिंसा पर आधारित अज्ञानवश उसके महत्त्व को न स्वीकारने से उसके प्रभाव से कोई
अस्पतालों के निर्माण एवं संचालन तथा प्रेरणा के पीछे उनकी बच नहीं सकता। पारस को पत्थर कहने से वह पत्थर नहीं हो
दृष्टि सम्यक् नहीं कही जा सकती ? जाता और पत्थर को पारस मान लेने से वह पारस नहीं बन जाता। सम्यक दर्शन रोग के इस मूल कारण पर दृष्टि डालता है एवं कर्मों
इसी कारण मिथ्यात्व को सबसे बड़ा पाप माना जाता है। को दूर करने की प्रेरणा देता है, जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।
भारत भर के बच्चों के पोलियो पल्स के टीके चंद माह पहले
लगाने का अभियान चला, परंतु शायद ही किसी ने यह जानने अपनी सफलताओं का अहम करने वालों के जैसे ही
का प्रयास किया कि इनके कोई दुष्प्रभाव तो नहीं होते? ये पूर्वकृत पुण्यों का क्षय हो जाता है और अशुभ कर्मों का उदय
दवाइयाँ कैसे बनती हैं? इसके निर्माण में बछड़ों के ताजे खून प्रारंभ होने लगता है, उनका अहम चूर-चूर हो जाता है। अपराध
एवं बंदरों के गुर्दो के अवयवों की आवश्यकता होती है। अमेरिका के प्रथम प्रयास में न पकड़ा जाने वाला यदि अपनी सफलता
में लगभग १ हजार परिवारों को इन इंजेक्शनों के दष्प्रभावों के पर गर्व करे तो यह उसका अज्ञान ही होगा। Shanindiannaraman a ndamoornool Roomaroornanandamaharanaries
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