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-चनीन्दगरिमारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में धर्मजाएगा। शारीरिक मानसिक अथवा आत्मिक रोगी बनता जाएगा। कर्मों की तरफ दृष्टि जाने लगती है। उसके शुद्धिकरण का प्रयास जितना-जितना अपने स्वभाव को विकसित करेगा स्वस्थ बनता प्रारंभ होने लगता है। सभी चेतनशील प्राणियों में एक जैसी जाएगा। अपने आपको पूर्ण स्वस्थ रखने की कामना रखने आत्मा के दर्शन होने लगते हैं। सत्य प्रकट होते ही पूर्वाग्रह एवं वालों को इस तथ्य, सत्य का चिंतन कर अपने लक्ष्य की तरफ एकान्तवादी दृष्टिकोण समाप्त होने लगता है। अनेकान्तवादी दृष्टि आगे बढ़ना चाहिए।
विकसित होने लगती है। जैसे खुद को दुःख होता है वैसे ही
दूसरों के दुःख का अनुभव होने लगता है। आरोग्य एवं नीरोगता में अंतर
__ अतः स्वयं के लाभ के लिए दूसरों को कष्ट पहुँचाने की _ 'नीरोग' का मतलब है। रोग उत्पन्न ही न हो और 'आरोग्य'
प्रवृत्ति कम होने लगती है। सत्य को पाने के लिए उसका सारा का मतलब है। शरीर में रोगों की उपस्थिति होते हुए भी हमें ।
_प्रयास होने लगता है एवं अनुपयोगी कार्यों के प्रति उसमें उदासीनता उनकी पीड़ा एवं दुष्प्रभावों का अनुभव न हो। आज हमारा सारा
आने लगती है और जीवन में समभाव बढ़ने लगता है। अर्थात् प्रयास आरोग्य रहने तक ही सीमित हो गया है। उसमें भी हम
उसके जीवन में सम (समता), संवेग (सत्य को पाने की तीव्र मात्र शारीरिक रोगों को ही रोग मान रहे हैं। मानसिक एवं आत्मिक
अभिलाषा), निर्वेद (अनुपयोगी कार्यों के प्रति उपेक्षावृति), रोग जो ज्यादा खतरनाक हैं, हमें जन्म-मरण एवं विभिन्न योनियों
अनुकम्पा (प्राणिमात्र के प्रति दया, करुणा, परोपकार, मैत्री का में भटकाने वाले हैं, की तरफ ध्यान ही नहीं। शारीरिक रूप से ।
भाव) तथा सत्य के प्रति आस्था हो जाती है। यही सम्यक्त्व के भी नीरोग बनना असंभव सा लगता है। चाहे रोग शारीरिक हों,
पाँच लक्षण है। उसका उद्देश्य मेरा जो सच्चा के स्थान पर सच्चा चाहे मानसिक अथवा आत्मिक उनका प्रभाव तो शरीर पर ही
जो मेरा हो जाता है। उसका जीवन स्वर पर कल्याण के लिए ही पड़ेगा। अभिव्यक्ति तो शरीर के माध्यम से ही होगी, क्योंकि
कार्यरत रहता है। मन और आत्मा अरूपी हैं। उनको इन भौतिक आँखों से नहीं देखा जा सकता। मुख्य रूप से रोग आधि (मानसिक) व्याधि सम्यक्दर्शी का चिकित्सा के प्रति दृष्टिकोण - (शारीरिक) उपाधि (कर्मजन्य) के रूप में ही प्रकट होते हैं। सम्यग्दर्शन होने पर व्यक्ति रोग के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष वर्तमान अतः आधि, व्याधि, उपाधि का शमन करने से ही समाधि,
मान, एवं भूत संबंधी शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक कारणों को परम शांति अथवा स्वास्थ्य अर्थात् नीरोग-अवस्था की प्राप्ति
देखेगा, समझेगा और उन कारणों से बचने का प्रयास करने हो सकती है।
लगेगा। फलतः रोग उत्पन्न होने की संभावनाएँ बहुत कम हो स्वास्थ्य का सम्यक् दर्शन -
जाएँगी। जो स्वस्थ रहने के लिए अति आवश्यक है। रोग उत्पन्न
हो भी गया हो तो उसके लिए दूसरों को दोष देने के बजाय स्वयं सम्यग्दर्शन का सीधा-साधा सरल अर्थ होता है सही ।
की गलतियों को ही उसका प्रमुख कारण मानेगा तथा धैर्य एवं दृष्टि, सत्य दृष्टि, सही विश्वास। अर्थात् जो वस्तु जैसी है जितनी
सहनशीलता पूर्वक उसका उपचार करेगा। उपचार कराते समय महत्त्वपूर्ण है, जितनी उपयोगी है, उसको उसके स्वरूप, गुण एवं
क्षणिक राहत से प्रभावित नहीं होगा, दुष्प्रभावों की उपेक्षा नहीं धर्म के आधार पर जानना। सम्यक् दर्शन से स्वविवेक जागृत
करेगा। साधन, साध्य एवं सामग्री की पवित्रता पर विशेष ध्यान होता है। स्वदोषदर्शन की प्रवृत्ति विकसित होती है। वस्तस्थिति
रखेगा। ऐसी दवाओं से बचेगा जिनके निर्माण एवं परीक्षण में ऐसी हो गई है कि हमारा शरीर रूपी नौकर एवं मन रूपी मुनीम
किसी भी जीव को कष्ट पहुँचता हो। उपचार के लिए अनावश्यक आत्मा रूपी मालिक पर शासन कर रहें हैं। हमारी स्थिति उस शेर
हिंसा को प्रोत्साहन नहीं देगा। आशय यह है कि सम्यग्दर्शन होने के समान हो गई है जो भेड़ियों के बीच पल कर बड़ा होने से न
के पश्चात् व्यक्ति पाप के कार्यों अर्थात अशुभ प्रवृत्तियों से यथा अपनी शक्तियों का भान भूल जाता है। सम्यग्दर्शन से आत्मा
संभव बचने का प्रयास करता है। उसका जीवन पानी में कमल और शरीर का भेदज्ञान होता है। आत्मा का साक्षात्कार होने से
की भाँति निर्लिप्त होने लगता है। प्रत्येक कार्य को करने में उसकी अनन्त शक्ति का भान होने लगता है। उसके ऊपर आए उसका विवेक एवं सजगता जागत होने लगते हैं। अनकल एव imilaritariatriardibasutrdarshikarditoriado ४१dividorsdrsdasudasuddandramodindiansarriand
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