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________________ .. अज्ञान सभी रोगों का मूल है? चंचलमल चोरडिया जालोरी गेट के बाहर, जोधपुर....) स्वस्थ कौन? बराबर न करे तो यह उसकी विभावदशा है अर्थात् शारीरिक रोगों का प्रतीक है। स्वास्थ्य का मतलब है स्व में स्थित हो जाना अर्थात् अपने निज स्वरूप में आ जाना या विभाव-अवस्था से स्वभाव शरीर विभिन्न तंत्रों का समूह है। जैसे ज्ञानतंत्र, नाड़ीतंत्र, में आ जाना। जैसे अग्नि के संपर्क से पानी गरम हो जाता है. श्वसन, पाचन, विसर्जन, मज्जा, अस्थि, लासिका, शुद्धिकरण, उबलने लगता है, परंतु जैसे ही अग्नि से उसको अलग करते हैं, प्रजननतंत्र आदि। सभी आपसी सहयोग से अपना - अपना धीरे-धीरे वह ठण्डा हो जाता है। शीतलता पानी का स्वभाव है. कार्य स्वयं ही करते हैं, क्योंकि ये चेतनाशील प्राणी के लक्षण गर्मी नहीं। उसको वातावरण के अनुरूप रखने के लिए किसी अथवा स्वभाव हैं। परंतु यदि किसी कारणवश कोई भी तंत्र बाह्य आलंबन की आवश्यकता नहीं होती। उसी प्रकार शरीर में शिथिल हो जाता है एवं उसके कार्य को संचालित अथवा नियंत्रित जैसे हड़ियों का स्वभाव कठोरता है. परंत किसी कारणवश कोई करने के लिए बाह्य सहयोग लेना पड़े तो यह शरीर की विभावदशा हड़ी नरम हो जाए तो रोग का कारण बन जाती है। मांसपेशियों है अर्थात् शारीरिक रोग का सूचक है। का स्वभाव लचीलापन है। परंतु उनमें कहीं कठोरता आ जाती मन का कार्य मनन करना, चिंतन करना, संकल्प करना, है, गाँठ बन जाती है तो शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। हृदय एवं विकल्प करना व इच्छाएँ करना आदि है। इस पर जब ज्ञान एवं रक्त को शरीर में अपेक्षाकृत गरम रहना चाहिए, परंतु यदि वे ठंडे विवेक का अंकश रहता है तो वह शभ में प्रवृत्ति करता है। हो जायें तो, मस्तिष्क तनाव मुक्त शान्त रहना चाहिए, परंतु वह व्यक्ति को नर से नारायण बनाता है। परंत जब स्वछन्द होता है उत्तेजित हो जायें तो रोग का सूचक है। शरीर का तापक्रम ९८.४ तो अपने लक्ष्य से भटका देता है। जब चाहा, जैसा चाहा डिग्री फारहेनाइट रहना चाहिए, परंतु वह बढ़ जावे अथवा कम चिंतन-मनन, इच्छा-एषणा, आवेग करने लग जाता है, जिसका हो जायें। शरीर में सभी अंगों एवं उपांगों का आकार निश्चित परिणाम होता है क्रोध, मान, माया, लोभ, असंयम, द्वन्द्व, प्रमाद होता है। परंतु, वैसा न हो। विकास जिस अनुपात में होना चाहिए, जैसी अशभ प्रवृत्तियाँ। ये सब मानसिक रोगों का कारण हैं। उस अनुपात में न हो। जैसे शरीर बेढंगा हो, शरीर में विकलांगता इसके विपरीत क्षमा, करुणा, दया, मैत्री, सेवा, विनम्रता, सरलता, हो, आंखों की दृष्टि कमजोर हो, कान से कम सुनाई देता हो, मुँह संतोष, संयम एवं शभ प्रवत्तियाँ मन के उचित कार्य हैं। अतः से बराबर बोल न सकें, आदि शरीर की विभाव-दशाएँ हैं। अतः मानसिक स्वस्थता के प्रतीक हैं। अज्ञान, मिथ्यात्व, मोह आत्मा रोग की प्रतीक हैं। शरीर का गुण है - जो अंग और उपांग शरीर की विभावदशा है जो कर्मों के आवरण से उसको अपना भान के जिस स्थान पर स्थित है, उनको वहीं स्थित रखना। हलन- नहीं होने देती। अतः आत्मा के रोग हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त चलन के बावजूद आगे पीछे न होने देना। शरीर में विकार उत्पन्न दर्शन, वीतरागता शुद्धात्मा के लक्षण हैं जो आत्मा की स्वस्थता हो जाने पर उसको दूर कर पुनः अच्छा करना। यदि कोई हड्डी के द्योतक हैं। जैसे कोई व्यक्ति केवल झूठ बोलकर ही जीना ट जाए तो उसे पुनः जोड़ना। चोट लग जाने से घाव हो गया चाहे. सत्य बोले ही नहीं तो क्या दीर्घकाल तक अपना जीवन हो, तो उसको भरना तथा पुनः त्वचा का आवरण लगाना तथा संचारू रूप से चला सकता है? नहीं। क्योंकि झूठ बोलना रक्त बहने अथवा रक्तदान आदि से शरीर में रक्त की कमी हो आत्मा का स्वभाव नहीं। व्यक्ति छोटा हो या बड़ा अपने स्वभाव गई हो तो उसकी पुनः पूर्ति करना। ये सब कार्य व गुण शरीर के में बिना किसी परेशानी के सदैव रह सकता है। बाह्य आलम्बनों स्वभाव हैं। परंतु यदि किसी कारणवश शरीर इन कार्यों को एवं परिस्थितियों में जितना-जितना वह विभाव-अवस्था में doodwordroidrotoniudnidrodwordroidwordsdwiridw ४०dminird-bridword6dustoririrbird-id-didiadri Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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