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________________ अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु : एक पुनर्विचार अन्तकृद्दशा जैन अंग-आगमों का अष्टम अंगसूत्र है। स्थानांगसूत्र अन्तकृदशा की विषयवस्तु-सम्बन्धी प्राचीन उल्लेख में इसे दश दशाओं में एक बताया गया है। अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु स्थानांग में 'हमें सर्वप्रथम अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु का से सम्बन्धित निर्देश श्वेताम्बर-आगम-साहित्य में स्थानांग, समवायांग उल्लेख प्राप्त होता है। इसमें अन्तकृद्दशा के ये दस अध्ययन एवं नन्दीसूत्र में तथा दिगम्बर- परम्परा में राजवार्तिक, धवला तथा बताये गये हैं-नमि, मातंग, सोमिल, रामगुप्त (रामपुत्त), जयधवला में उपलब्ध है। सुदर्शन, जमाली, भयाली, किंकम, पल्लतेतीय और फालअम्बपुत्र'। यदि हम वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा को देखते हैं तो उसमें अन्तकृदशा का वर्तमान स्वरूप उपर्युक्त दस अध्ययनों में केवल दो नाम सुदर्शन और किंकम वर्तमान में जो अन्तकृद्दशा उपलब्ध है उसमें आठ वर्ग हैं। प्रथम उपलब्ध हैं। वर्ग में गौतम, समुद्र, सागर, गम्भीर, स्तिमित, अचल, काम्पिल्य, समवायांग में अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु का विवरण देते हुए अक्षोभ,प्रसेनजित और विष्णु ये दस अध्ययन उपलब्ध हैं। द्वितीय कहा गया है कि इसमें अन्तकृत जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, वर्ग में आठ अध्ययन है। श्रुतस्कन्ध इनके नाम हैं--अक्षोभ, सागर, राजा, माता-पिता,समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक और समुद्र, हिमवन्त, अचल, धरण, पूरण और अभिचन्द्र। तृतीय वर्ग में परलोक की ऋद्धि विशेष, भोग और उनका परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतज्ञान निम्न तेरह अध्ययन हैं--(१) अनीयस कुमार, (२) अनन्तसेन कुमार, का ध्यान, तप तथा क्षमा आदि बहुविध प्रतिमाओं, सत्रह प्रकार के (३) अनिहत कुमार, (४) विद्वत् कुमार, (५) देवयश कुमार, (६) संयम, ब्रह्मचर्य, आकिंचन्य, समिति, गुप्ति, अप्रमाद, योग, स्वाध्याय शत्रुसेन कुमार, (७) सारण कुमार, (८) गज कुमार, (९) सुमुख कुमार, और ध्यान सम्बन्धी विवरण हैं। आगे इसमें बताया गया है कि इसमें (१०) दुर्मुख कुमार, (११) कूपक कुमार, (१२) दारुक कुमार और उत्तम संयम को प्राप्त करने तथा परिग्रहों के जीतने पर चार कर्मो (१३) अनादृष्टि कुमार। इसी प्रकार चतुर्थ वर्ग में निम्र दस अध्ययन । के क्षय होने से केवलज्ञान की प्राप्ति किस प्रकार से होती है, इसका हैं--(१) जालि कुमार, (२) मयालि कुमार, (३) उवयालि कुमार, उल्लेख है साथ ही उन मुनियों की श्रमण-पर्याय, प्रायोपगमन, अनशन, (४) पुरुषसेन कुमार, (५) वारिषेण कुमार, (६) प्रद्युम्न कुमार, तम और रजप्रवाह से मुक्त होकर मोक्षसुख को प्राप्त करने सम्बन्धी (७) शाम्ब कुमार, (८) अनिरुद्ध कुमार, (९) सत्यनेमि कुमार और उल्लेख है। समवायांग के अनुसार इसमें एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन (१०) दृढनेमि कुमार। पंचम वर्ग में दस अध्ययन हैं जिनमें आठ और सात वर्ग बतलाये गये हैं। जबकि उपलब्ध अन्तकृद्दशा में आठ कृष्ण की प्रधान पत्नियों और दो प्रद्युम्न की पत्नियों से सम्बन्धित हैं। वर्ग हैं अतः समवायांग में वर्तमान अन्तकृद्दशा की अपेक्षा एक वर्ग प्रथम वर्ग से लेकर पाँचवें वर्ग तक के अधिकांश व्यक्ति कृष्ण के कम बताया गया है। ऐसा लगता है कि समवायांगकार ने स्थानांग परिवार से सम्बन्धित हैं और अरिष्टनेमि के शासन में हुए हैं। छठे, की मान्यता और उसके सामने उपलब्ध ग्रन्थ में एक समन्वय बैठाने सातवें और आठवें वर्ग का सम्बन्ध महावीर के शासन से है। छठे का प्रयास किया है। ऐसा लगता है कि समवायांगकार के सामने स्थानांग वर्ग के निम्न १६ अध्ययन बताये गये हैं-(१) मकाई, (२) किंकम, में उल्लिखित अन्तकृद्दशा लुप्त हो चुकी थी और मात्र उसमें १० (३) मुद्गरपाणि, (४) काश्यप, (५) क्षेमक (६) धृतिधर, (७) कैलाश, अध्ययन होने की स्मृति ही शेष थी तथा उसके स्थान पर वर्तमान (८) हरिचन्दन, (९) वारत्त, (१०) सुदर्शन, (११) पुण्यभद्र, उपलब्ध अन्तकृद्दशा के कम से कम सात वर्गों का निर्माण हो (१२) सुमनभद्र, (१३) सुप्रतिष्ठित, (१४) मेघकुमार, (१५) अतिमुक्त चुका था। कुमार और (१६) अलक्क (अलक्ष्य) कुमार। सातवें वर्ग में १३ नन्दीसूत्रकार अन्तकृद्दशा के सम्बन्ध में जो विवरण प्रस्तुत करता अध्ययनों के नाम निम्न हैं-(१) नन्दा, (२) नन्दवती, (३) नन्दोत्तरा, है वह बहुत कुछ तो समवायांग के समान ही है, किन्तु उसमें स्पष्ट (४) नन्दश्रेणिका, (५) मरुता, (६) सुमरुता, (७) महामरुता, (८) रूप से इसके आठ वर्ग होने का उल्लेख प्राप्त है। समवायांगकार मरुद्देवा, (९) भद्रा, (१०) सुभद्रा, (११) सुजाता, (१२) सुमनायिका जहाँ अन्तकृद्दशा के दस समुद्देशन कालों की चर्चा करता है वहाँ और (१३) भूतदत्ता। आठवें वर्ग में काली, सुकाली, महाकाली, कृष्ण नन्दीसूत्रकार उसके आठ उद्देशन कालों की चर्चा करता है। इस प्रकार और सुकृष्णा, महाकृष्णा, वीरकृष्णा, रामकृष्णा, महासेनकृष्णा और यह स्पष्ट है कि वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा की रचना समवायांग महासेनकृष्णा इन दस श्रेणिक की पत्नियों का उल्लेख है। उपर्युक्त के काल तक बहुत कुछ हो चुकी थी और वह अन्तिम रूप से नन्दीसूत्र सम्पूर्ण विवरण को देखने से लगता है कि केवल किंकम और सुदर्शन की रचना के पूर्व अपने अस्तित्व में आ चुका था। श्वेताम्बर-परम्परा ही ऐसे अध्याय हैं जो स्थानांग में उल्लिखित विवरण से नाम-साम्य में उपलब्ध तीनों विवरणों से हमें यह ज्ञात होता है कि स्थानांग में रखते हैं, शेष सारे नाम भिन्न हैं। उल्लिखित अन्तकृद्दशा प्रथम संस्करण की विषयवस्तु किस प्रकार से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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