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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - भी मत खरीदो। परनिन्दा, काम-कुचेष्टा शस्त्र-संग्रह आदि मत करो। ८. व्यवसाय के क्षेत्र में नाप-तौल में अप्रमाणिकता मत रखो और १५. यथासम्भव अतिथियों की, संतजनों की, पीड़ित एवं असहाय वस्तुओं में मिलावट मत करो। व्यक्तियों की सेवा करो। अत्र, वस्त्र, आवास, औषधि आदि ९. राजकीय नियमों का उल्लंघन और राज्य के करों का अपवंचन के द्वारा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करो। मत करो। १६. क्रोध मत करो, सबसे प्रेम-पूर्ण व्यवहार करो। १०. अपने यौन सम्बन्धों में अनैतिक आचरण मत करो। परस्त्री-संसर्ग, १७. अहंकार मत करो अपितु विनीत बनो, दूसरों का आदर वेश्यावृत्ति एवं वेश्यावृत्ति के द्वारा धन-अर्जन मत करो। ११. अपनी सम्पत्ति का परिसीमन करो और उसे लोकहितार्थ व्यय १८. कपटपूर्ण व्यवहार मत करो वरन् व्यवहार में निश्छल एवं करो। प्रामाणिक रहो। १२. अपने व्यवसाय के क्षेत्र को सीमित करो और वर्जित व्यवसाय १९. अविचारपूर्वक कार्य मत करो। मत करो। २०. तृष्णा मत रखो। १३. अपनी उपभोग-सामग्री की मर्यादा करो और उसका अति-संग्रह उपर्युक्त और अन्य कितने ही आचार नियम ऐसे हैं जो जैनमत करो। नीति की सामाजिक सार्थकता को स्पष्ट करते हैं।२५ आवश्यकता इस १४. वे सभी कार्य मत करो, जिनसे तुम्हारा कोई हित नहीं होता बात की है हम आधुनिक संदर्भ में उनकी व्याख्या एवं समीक्षा करें है किन्तु दूसरों का अहित सम्भव हो अर्थात् अनावश्यक गपशप, तथा उन्हें युगानुकूल बनाकर प्रस्तुत करें। करो। सन्दर्भ : १. जैनधर्म का प्राण, पं० सुखलालजी, सस्ता साहित्य मण्डल, देहली, पृ० ५६-५९ २. अमरभारती, अप्रैल १९६६, पृ० २१ उत्तराध्ययन, ३१/२ सर्वोदय-दर्शन, आमुख, पृ० ६ पर उद्धृत । प्रश्नव्याकरणसूत्र २/१/२२ प्रश्नव्याकरण १/१/२१ वही, १/१/३ ८. वही, १/२/२२ सूत्रकृतांग (टीका) १/६/४ १०. योगबिन्दु, आचार्य हरिभद्र, २८५-२८८ ११. योगबिन्दु २८९ १२. योगबिन्दु २९० १३. निशीथचूर्णि, सं० अमरमुनि, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, भाष्य गा०, २८६० १४. स्थानांग, १०/७६० १५. उद्धृत, आत्मसाधना संग्रह, पृ० ४४१ १६. अभिधान-राजेन्द्र, खण्ड ५, पृ०६९७ . १७. अभिधान-राजेन्द्र, खण्ड ५, पृ०६९७ १८. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृष्ठ ३-४ १९. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० २ २०. जैन-प्रकाश, ८ अप्रैल १९६९, पृ० १ २१. देखिए- श्रावक के बारह व्रत, उनके अतिचार और मार्गानुसारी गुण। anoronorrowondwonorariwarorandirdridwordNGrirbrowa-[११३]ordroidmirbrdroombororanioraniromaniramirrowd Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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