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________________ यतीन्द्र सरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य हुए राग-द्वेषरहित चित्त के विशुद्ध धर्म-ध्यान में लीन होने की ८. व्यवहारनियुक्ति अवस्था को भावसमाधि कहा गया है। बृहत्कल्प में श्रमणजीवन की साधना का जो शब्द-चित्र उपासकप्रतिमा नामक षष्ठ अध्ययन में "उपासक" और प्रस्तुत किया गया है एवं उत्सर्ग व अपवाद का जो विवेचन "प्रतिमा" का निक्षेपपूर्वक चिन्तन करते हुए उपासक के किया गया, उन्हीं विषयों पर व्यवहार में भी चिन्तन किया गया द्रव्योपासक. तदर्थोपासक. मोहोपासक एवं भावोपासक रूप है। यही कारण है कि व्यवहारनिर्यक्ति में अधिकतर उन्हीं अथवा चार भेदों एवं श्रमणोपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का निरूपण उसी प्रकार के विषयों का विवेचन है जो बृहकल्पनियुक्ति में किया गया है। उपलब्ध हैं। अत: ये दोनों नियुक्तियाँ एक-दूसरे की पूरक हैं। सप्तम अध्ययन भिक्षुप्रतिमा का है। इसमें भाव-भिक्षु की ९. सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति एवं समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसंलीनप्रतिमा एवं एक विहारप्रतिमा का उल्लेख है। १०. ऋषिभाषितनियुक्ति अनुपलब्ध हैं, जिनकी अन्य अष्टम अध्ययन की नियुक्ति में पर्दूषणाकल्प का व्याख्यान नियुक्तियों के साथ संक्षिप्त परिचयात्मक चर्चा करेंगे। किया गया है। परिवसना, पर्युषणा, वर्षावास, प्रथमसमवरण अन्य नियुक्तियाँ- उपलब्ध इन आठ नियुक्तियों के अतिरिक्त आदि को एकार्थक कहा गया है। कुछ और नियुक्तियाँ भी हैं, जो निम्न हैं - नवम अध्ययन मोहनीय स्थान का है. जिसमें मोह नामादि संसक्तनियुक्ति - यह नियुक्ति किस आगम पर लिखी गई है, भेद से चार प्रकार का है। पाप, वैर, वर्ण्य, पंक, उत्साह, संग इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। कितने ही विद्वान् आदि मोह के पर्यायवाची हैं, ऐसा उल्लेख किया गया है। इसे भद्रबाहु की रचना मानते हैं, कितने उनके बाद के किसी आचार्य की रचना मानते हैं। चौरासी आगामों में इसका भी अजातिस्थान नामक दशम अध्ययन में अजाति अर्थात् उल्लेख है। जन्म-मरण से विमुक्ति-मोक्ष कैसे प्राप्त होता है, का विशद विवेचन किया गया है। निशीथनिर्यक्ति - यह निर्यक्ति एक प्रकार से आचारांगनियुक्ति का एक अंग है, क्योंकि आचारांगनियुक्ति के अन्त में स्वयं 6. बृहत्कल्पनियुक्ति नियुक्तिकार ने लिखा है कि पंचमचूलिकानिशीथ की नियुक्ति यह नियुक्तिभाष्यमिश्रित अवस्था में मिलती है। सर्वप्रथम मैं बाद में करूँगा। यह नियुक्ति निशीथभाष्य में इस प्रकार से तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है।७४ तदपरान्त ज्ञान और समाविष्ट की गई है कि इसे अलग नहीं किया जा सकता, इसमें मंगल में कथंचित भेद-अभेद करते हए ज्ञान के विविध भेदों मुख्य रूप से श्रमणाचार का उल्लेख है। का निर्देश दिया गया है। मंगल के नाममंगल, स्थापनामंगल, गोविन्दनिर्यक्ति - इस नियुक्ति में दर्शन सम्बन्धी मन्तव्यों पर द्रव्यमंगल एवं भावमंगल की निक्षेप-पद्धति से व्याख्या करते । प्रकाश डाला गया है। आचार्य गोविन्द ने एकेन्द्रिय जीवों की हुए अनुयोग, उपक्रम, अनुगम और नय इन चार अनुयोगद्वारों संसिद्धि के लिए इसका निर्माण किया था। यह किसी एक आगम की चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त नियुक्तिकार ने सपरिग्रह- पर न होकर स्वतन्त्र रचना है। बहकल्पभाष्य, आवश्यकचर्णि अपरिग्रह, जिनकाल्पिक एवं स्थविरकाल्पिक के आहार-विहार एवं निशीथचर्णि में इसका उल्लेख मिलता है। यह वर्तमान में की चर्चा करते हुए आर्यक्षेत्र के बाहर विचरण करने से लगने उपलब्ध नहीं है। वाले दोषों का स्कन्दकाचार्य के दृष्टान्त के साथ दिग्दर्शन कराया आराधनानियुक्ति - यह भी वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। चौरासी है। साथ ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र की रक्षा और वृद्धि के लिए आगामों में “आराधनापताका" नामक एक आगम है, संभव है आर्यक्षेत्र के बाहर विचरण की आज्ञा एवं संप्रतिराज के दृष्टान्त से यह नियुक्ति उसी पर हो। मूलाचार में वट्टकेरस्वामी ने इसका उसके समर्थन का भी उल्लेख मिलता है। यह नियुक्ति स्वतन्त्र उल्लेख किया है। न रहकर बृहल्कल्पभाष्य में मिश्रित हो गई है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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