SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - मुनिश्री दीप विजयजी म. को आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरिजी म.के पट्ट पर वि.सं. १९८० में ज्येष्ठ शुक्ला ८ को प्रतिष्ठित करना और मुनिश्री यतीन्द्र विजयजी म. को उपाध्याय पद से अलंकृत करना। २. आचार्य पदोत्सव का समस्त विधि-विधान मनि श्री यतीन्द्र विजय जी.म. के कर कमलों से सम्पानित करवाना तथा संप्रदाय के समस्त साधु-साध्वियों को उपर्युक्त अवसर पर निमंत्रित कर बुलाना और संघ में एकता एवं सौहार्द्र बने एवं बढ़ता रहे- इस दृष्टि एवं उद्देश्य से नियम बनाना और उन्हें कार्यान्वित करना। ३. आचार्य पदोत्सव श्री संघ जावरा की ओर से होगा। सम्प्रदाय के निकट-दूर के ग्राम-नगरों के श्री संघों को आमंत्रण-पत्र भेजकर साग्रह निमंत्रित करना। इस निर्णयानुसार जावरा में आचार्य पदोत्सव धूमधाम से सम्पन्न हुआ। अब आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरीजी म. सम्प्रदाय के आचार्य हो गये और उपाध्याय पद से अलंकृत किया गया मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. को । यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा कि जब आपको उपाध्याय पद प्रदान किया जाने लगा तब आपने विस्तृत प्रवचन फरमाया। इस प्रवचन में आपने उपाध्याय पद की योग्यता और महिमा-गरिमा का वर्णन किया तथा यह कहते हुए पद स्वीकार करने से इन्कार कर दिया कि अभी उनमें इस पद के अनुरूप योग्यता नहीं है। ऐसा करके आपने अपनी निस्पृहता का ही परिचय दिया। तत्पश्चात् सर्वानुमति-जावरा के अग्रगण्य श्रावक श्री टेकचंद जी ने उपस्थित धर्मप्रेमी श्रावकों को सम्बोधित करते हुए प्रस्तावित एवं सम्मानित वक्तव्य का वाचन किया। सबकी सम्मति से मुनि श्री दीप विजयजी को सूरि पद और मुनिश्री यतीन्द्रविजयजी को उपाध्याय पद प्रदान किया गया। इस घोषणा के साथ जय-जयकार के निनादों से जावरा का गगन मण्डल गूंज उठा। वि.सं. १९८० का आपका वर्षावास रतलाम में सम्पन्न हुआ। उल्लेखनीय तथ्य यह रहा कि यहाँ श्रीमद् सागरानंद सूरि का भी वर्षावास था। ये जैनाचार्यों में आगम-ज्ञान के प्रखर धारक माने गये हैं। जब उपाध्याय की यतीन्द्र विजयजी का वर्षावास रतलाम में हुआ और उनकी ख्याति बढ़ी तो श्रीमद् सागरानं सूरि को यह सहन नहीं हुआ कि अपने से छोटी आयु वाला साधु उनसे अधिक महिमावान् हो जाये। उन्होंने आप के साथ शास्त्रार्थ का प्रस्ताव रखा। शास्त्रार्थ का विषय था 'जैन श्वेताम्बर साधुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिये या पीत।' आपने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। विद्वानों के समक्ष शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ और आपके अकाट्य एवं आगम-सम्मत प्रमाणों के आगे श्रीमद् सागरानंद सूरि टिक नहीं पाये। यह शास्त्रार्थ सात माह तक चलता रहा। अंततः श्रीमद् सागरानंद सूरि एक रात्रि को सूर्योदय के पूर्व ही बिना किसी को सूचित किये, चुपचाप रतलाम से विहार कर गये। इस शास्त्रार्थ से उपाध्याय यतीन्द्र विजयजी म.सा. की कीर्ति चारों ओर फैल गयी और आपकी प्रतिभा एवं योग्यता की सब ओर प्रशंसा होने लगी। तब से आप पीताम्बर पट विजेता भी कहलाने लगे। इस विजय के उपलक्ष्य में विद्वानों ने जो प्रमाण-पत्र आपको समर्पित किया था, वह आज भी आपके जीवन-चरित्र श्री गुरु-चरित्र नामक पुस्तक में सुरक्षित है। అందురుశారుగారుతinonari pravachanavaninుసారుడand Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy