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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - समाज एवं संस्कृति
दुत्कारा नहीं, अपितु उसके समुद्धार का प्रयत्न किया। जैन दण्डव्यवस्था में उन भिक्षुणियों के लिये किसी प्रकार के दण्ड को व्यवस्था नहीं की गई थी जो बलात्कार की शिकार होकर गर्भवती हो जाती थीं अपितु उनके और उनके गर्भस्थ बालक के संरक्षण का दायित्व संघ का माना गया था । प्रसवोपरान्त बालक-बालिका के बड़ा हो जाने पर वे पुनः भिक्षुणी हो सकती थी । इसी प्रकार वे भिक्षुणियाँ भी जो कभी वासना के आवेग में बहकर चारित्रिक स्खलन की शिकार हो जाती थीं, तिरस्कृत नहीं कर दी जातीं, अपितु उन्हें अपने को सुधारने का अवसर प्रदान किया जाता था । इस तथ्य के समर्थन में यह कहा गया था कि क्या बाड़ से प्रस्त नदी पुनः अपने मूल मार्ग पर नहीं आ जाती है ? जैन- प्रायश्चित व्यवस्था में भी स्त्रियों या भिक्षुणियों के लिए परिहार और पाराचिक (निष्कासन) जैसे कठोर दण्ड वर्जित मान लिये गये थे, क्योंकि इन दण्डों के परिणाम स्वरूप वे निराश्रित होकर वेश्यावृत्ति जैसे अनैतिक कर्मों के लिये बाध्य हो सकती थीं। इस प्रकार जैनाचार्य नारी के प्रति सदैव सजग और उदार रहे हैं।
हम यह पूर्व में ही सूचित कर चुके हैं कि जैनधर्म का भिक्षुणी संघ उन अनाथ, परित्यक्ता एवं विधवा नारियों के लिए सम्मानपूर्वक जीने के लिए एक मार्ग प्रशस्त करता था और यही कारण है कि प्राचीन काल से लेकर आजतक जैनधर्म अभागी नारियों के लिए आश्रय स्थल या शरणस्थल बना रहा है। सुश्री हीराबहन बोरदिया ने अपने शोध कार्य के दौरान अनेक साध्वियों का साक्षात्कार लिया और उसमें वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचीं थीं कि वर्तमान में भी अनेक अनाथ, विधवा, परित्यक्ता खियाँ अथवा वे कन्यायें जो दहेज अथवा कुरूपता के कारण विवाह न कर सकीं, वे सभी जैन भिक्षुणी संघ में सम्मिलित होकर एक सम्मानपूर्ण स्वावलम्बन का जीवन जी रही हैं। जैन भिक्षुणियों में से अनेक तो आज भी समाज में इतनी सुस्थापित हैं कि उनकी तुलना में मुनि-वर्ग का प्रभाव भी कुछ नहीं लगता है ।
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मणिप्रभा श्री जी और साध्वी श्री मृगावतीजी भी ऐसे नाम हैं कि जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही उनकी यशोगाथा को उजागर करते हैं। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में आर्यिका ज्ञानमतीजी का भी पर्याप्त प्रभाव है। उनके द्वारा प्रकाशित प्रन्थों की सूची से उनकी विद्वत्ता का आभास हो जाता है ।
अतः हम यह कह सकते हैं कि जैनधर्म में उसके अतीत से लेकर वर्तमान तक नारी की और विशेष रूप से भिक्षुणियों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। जहाँ एक ओर जैनधर्म ने नारी को सम्मानित और गौरवान्वित करते हुए, उसके शील संरक्षण का प्रयास किया और उसके आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया; वहीं दूसरी ओर ब्राह्मी सुन्दरी और चन्दना से लेकर आज तक की अनेकानेक सतीसाध्वियों ने अपने चरित्रबल तथा संयम-साधना से जैनधर्म की ध्वजा को फहराया है।
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विभिन्न धर्मों में नारी की स्थिति की तुलना
(१) हिन्दू धर्म और जैनधर्म हिन्दू-धर्म में वैदिक युग में नारी की भूमिका धार्मिक और सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी और उसे पुरुष के समकक्ष ही समझा जाता था । स्त्रियों के द्वारा रचित अनेक वेद ऋचाएँ और यज्ञ आदि धार्मिक कर्मकाण्डों में पत्नी की अनिवार्यता, निश्चय ही इस तथ्य की पोषक हैं। मनु का यह उद्घोष कि नार्यस्तु यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता अर्थात् जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवता रमण करते हैं, इसी तथ्य को सूचित करता है कि हिन्दूधर्म में प्राचीनकाल से नारी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, इन सबके अतिरिक्त भी देवी उपासना के रूप में सरस्वती, लक्ष्मी, महाकाली आदि देवियों की उपासना भी इस तथ्य की सूचक है कि नारी न केवल उपासक है अपितु उपास्य भी है। यद्यपि वैदिक युग से लेकर तंत्रयुग के प्रारम्भ तक नारी की महत्ता के अनेक प्रमाण हमें हिन्दूधर्म में मिलते हैं किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी है कि स्मृति-युग से ही उसमें क्रमशः नारी के महत्त्व का अवमूल्यन होता गया। स्मृतियों में नारी को पुरुष के अधीन बनाने का उपक्रम प्रारम्भ हो गया था और उनमें यहाँ तक युवावस्था में पति के अधीन और वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रह कर ही अपना जीवन जीना होता है। इस प्रकार वह सदैव ही पुरुष के अधीन ही है, कभी भी स्वतन्त्र नहीं है। स्मृति-काल में उसे सम्पत्ति के अधिकार से भी वंचित किया गया और सामाजिक जीवन में मात्र उसके दासी या भोग्या स्वरूप पर ही बल दिया गया। पति की सेवा को ही उसका एकमात्र कर्त्तव्य माना गया ।
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यह विडम्बना ही थी कि अध्ययन के क्षेत्र में भी वेद-सचाओं को निर्मात्री नारी को उन्हीं ऋचाओं के अध्ययन से वंचित कर दिया गया। उसके कार्यक्षेत्र को सन्तान उत्पादन, सन्तान पालन, गृहकार्य सम्पादन तथा पति की सेवा तक सीमित करके उसे घर की चारदीवारी রপীল २५ পমটsndh
इस आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जैनधर्म के विकास और प्रसार में नारी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। आज भी जैन समाज में भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की संख्या तीन गुनी से भी अधिक है जो समाज पर उनके व्यापक प्रभाव को द्योतित करती है। वर्तमान में भी अनेक ऐसी जैन साध्वियाँ हुई हैं और हैं जिनका कहा गया कि नारी को बाल्यकाल में पिता के अधीन, युग समाज पर अत्यधिक प्रभाव रहा है जैसे स्थानकवासी परम्परा में पंजाबसिंहनी साध्वी पार्वतीजी जो अपनी विद्वत्ता और प्रभावशीलता के लिये सुविश्रुत थीं। जैनधर्म के कट्टर विरोधी भी उनके तर्कों और बुलंदगी के सामने सहम जाते थे । इसी प्रकार साध्वी यशकुँवरजी जिन्होंने मूक पशुओं की बलि को बन्द कराने में अनेक संघर्ष किये और अपने शौर्य एवं प्रवचनपटुता से अनेक स्थलों पर पशुबलि को समाप्त करवा दिया। उसी क्रम में स्थानकवासी- परम्परा में मालव सिंहनी साध्वी श्री रत्नकुँवरजी और महाराष्ट्र-गौरव साध्वी श्री उज्ज्वलकुँवरजी के भी नाम लिये जा सकते हैं जिनका समाज पर प्रभाव किसी आचार्य से कम नहीं था. मूर्तिपूजक परम्परा में वर्तमान युग में साध्वी श्री विचक्षण श्री जी,
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