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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन होता है और अनुमान व्याप्ति के स्मरण से उत्पन्न होता है, अतएव (५) सागरमल जैन, तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परंपरा, पार्श्वनाथ - वे परोक्ष हैं उसी प्रकार सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन शोधपीठ, वाराणसी १९९४, पृ. ४
तथा आत्मव्यापार की सहायता से उत्पन्न होता है अतः वह भी (६) प्रमाणपरीक्षा, सम्पा. दरबारीलाल कोठिया, वीरसेवा मंदिर परोक्ष ही है। संभवत: उमास्वाति को इन तथ्यों का ज्ञान था
ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी १९७७, पृ. ९ इसलिए उन्होंने इंद्रिय और मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को
(अ) प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणं 'तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्'कहकर उसे परोक्ष की कोटि रखा।
पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, १/१०, पृ. ७० भट्ट अकलंक, हेमचन्द्र आदि आचार्य जिन्होंने इंद्रियमनोनिमित्तक
(ब) प्रमीयन्तेऽयस्तैरिति प्रमाणानि प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की संज्ञा दी उन पर नन्दीसूत्रकार के इन्द्रिय अनिन्द्रिय रूप से किए गए प्रत्यक्ष विभाग तथा नैयायिकों
उमास्वाति, सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, श्रीमद् . के 'इंद्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि
राजचंद्र आश्रम अगास १९३२, १/१२ व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्'९३ रूप से की गई प्रत्यक्ष की परिभाषा (७) न्यायभाष्य, सम्पा. आचार्य ढुंढिराज शास्त्री, चौखम्भा का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। ऐसा नहीं था कि संस्कृत संस्थान, वाराणसी वि.सं. २०३९, पृ. १८ उमास्वाति नैयायिकों की प्रमाणमीमांसा से परिचित नहीं थे, (८ ) न्यायमञ्जरी, जयंत भट्ट, संपा. के.एस. वरदाचार्य, क्योंकि नयवादान्तरेण९४ कहकर तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष के ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यू ९६९, पृ. १२ अतिरिक्त अनुमान उपमानादि प्रमाणों को नैयायिकों का कहकर,
(९) न्यायबिन्दु, चौखम्भा सिरीज काशी, पृ. १३ उन सारे प्रमाणों को इन्हीं दो मुख्य प्रमाणों में अंतर्भूत माना है,
(१०) अर्थसंनिकर्षे प्रमाणे सति इन्द्रिये वा को दोषः। यदि सन्निकर्षः पर यह जरूर था कि उनसे वे प्रभावित नहीं थे। फिर उमास्वाति
प्रमाणम. सक्ष्मव्यवहितप्रकष्टानामर्थानाम ग्रहणप्रसंगः। की प्रत्यक्ष की परिभाषा में ऐसा कोई दोष परिलक्षित नहीं होता
सर्वार्थसिद्धि, १/१०, पृ. ६९. जिसका परिहार सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को मान लेने मात्र से हो गया हो। क्योंकि परवर्ती आचार्य भी अवधि, मनःपर्याय और र
(११) सर्वार्थसिद्धि- १/१९ । केवल को पारमार्थिक प्रत्यक्ष तो मानते ही हैं। अतः उमास्वाति (१
२) जैनन्याय, सम्पा. पं.कैलाशचंद्र शास्त्री, श्री गणेशवर्णी द्वारा प्रत्यक्षप्रमाण-विवेचन जो तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में हुआ
दिगम्बर जैन संस्थान, वाराणसी १९८८, पृ. २७ है, वह अपने आप में पूर्ण है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
नोट : संदर्भ १३ से २९ तक अप्राप्त ।
(३०) सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्र- १/६ सन्दर्भ
(३१) (अ) वैशेषिकसूत्र, सम्पा. आचार्य ढुंढिराज शास्त्री, चौखंभा (१) सर्वार्थसिद्धि सम्पा. पं. फूलचंद सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय
संस्कृत संस्थान, वाराणसी १९७७, ९/२/३ ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली १९९१, प्रस्तावना पृ. ६२
(ब) संख्यकारिका, ईश्वरकृष्ण, सम्पा. रमाशंकर त्रिपाठी, (२) षट्खण्डागम (धवला टीका एवं हिन्दी अनुवाद सहित)
भदैनी, वाराणसी १९७८, कारिका-४ पुष्पदन्त भूतबलि, जैन साहित्योद्धारक फण्ड कार्यालय,
(स) न्यायसूत्र १/१/३ अमरावती, प्रथम आवृत्ति १९५९।
(द) प्रकरणपंचिका-शालिकनाथ संस्कृत सिरीज, वाराणसी, (३) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, सम्पा श्री विद्यानंद मनोहरलाल शा.,
पृ. ४४ रामचंद्र नथरंगजी गांधी, मांडवी, बंबई १९१८, पृ.६
(य) शास्त्रदीपिका, सम्पा. पार्थसारथि मिश्र, निर्णयसागर, (४) पं. जुगलकिशोर मुख्तार, जैन साहित्य और इतिहास पर
बंबई, प्रथम संस्करण, १९१५, पृ. २४६ विशद् प्रकाश, वीरसेवा मंदिर सरसावा, सहारनपुर १९५६,
(३२)सर्वाण्येतानिमतिश्रुतयोरन्तर्भूतानीन्द्रियार्थसन्निकर्षनिमितत्त्वात्। पृ. २०२
सभाष्यतत्त्वार्थधिगमसूत्र- १/१२.
गिन
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