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- गतीन्द्रसूरि स्मारकग्रत्य - जैन दर्शन - को जानता है। इसे केवल, परिपूर्ण, समग्र, असाधारण, निरपेक्ष, तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्९ कहकर इसे मतिज्ञान की श्रेणी में विशुद्ध, सर्वभावज्ञापक लोकालोक विषय और अनन्तपर्यायज्ञान रखा है और इसे प्रत्यक्ष न मानकर परोक्ष ज्ञान कहा है। इन्द्रिय भी कहते हैं। यह अपनी तरह का अकेला ज्ञान है इसलिए इसे निमित्तक और अनिन्द्रिनिमित्तक ज्ञानरूप मतिज्ञान के ४ भेद९० केवल ज्ञान कहते हैं।
किए गए हैं--(१) अवग्रह, (२) ईहा, (३) अवाय (अपाय) सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक - प्रत्यक्ष-उमास्वामि ने प्रत्यक्ष आर (४) धारणा। के अंदर अवधि, मन:पर्याय एवं केवल इन तीन आत्म सापेक्ष इन्द्रिय और अर्थ के संबंधित होने पर जो सामान्यज्ञान होता एवं इन्द्रिय अनिन्द्रिय की सहायता के बिना होने वाले ज्ञानों को है, जिसमें कोई विशेषण, नाम या विकल्प नहीं होता उसे अवग्रह ही लिया है। बाद में जब आगमिक विचार प्रक्रिया में तार्किकता कहते हैं। यह दो प्रकार का है - व्यञ्जना अवग्रह एवं अर्थावग्रह। का प्रवेश हुआ तो ऐसा महसूस किया जाने लगा कि लोकव्यवहार ईहा - अवग्रह द्वारा गहीत जान को विशेष रूप से जानने में प्रसिद्ध इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्ष की समस्या के समन्वय
की इच्छा ईहा है। हेतु इन्हें भी प्रत्यक्ष में शामिल किया जाना चाहिए। नन्दीसूत्रकार ५ ने संभवतः सबसे पहले इन दोनों ज्ञानों को प्रत्यक्ष में शामिल
अवाय (अपाय) - ईहा के द्वारा जाने हुए पदार्थ के कर प्रत्यक्ष के इंद्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष नामक दो
विषय में निर्णयात्मक ज्ञान अवाय है। विभाग किए। इसके बाद जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपने धारणा - अवाय से जिस अर्थ का बोध होता है, उसका
अतिविस्तृत भाष्य में द्विविध प्रमाण विभाग में आगमिक पञ्चज्ञान अधिक काल तक स्थिर रहना या स्मृतिरूप हो जाना धारणा है। विभाग (मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्याय, केवल) का तर्कपुरःसर (२) पारमार्थिक या मख्य प्रत्यक्ष - पारमार्थिक प्रत्यक्ष समावेश किया और अनुयोगद्वारकर्ता एवं नंदीकार द्वारा स्वीकृत पर्णरूपेण विशद होता है। जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति में मात्र आत्मा इंद्रियजन्य एवं नोइन्द्रियजन्यरूप से विविध प्रत्यक्ष के वर्णन में के ही व्यापार की अपेक्षा रखता है. मन और इन्द्रियों की सहायता आने वाले उस विरोध का परिहार सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक जिसमें अपेक्षित नहीं है. वह पारमार्थिक प्रत्यक्ष हे५२। प्रत्यक्ष ऐसे दो नाम देकर सर्वप्रथम करने का प्रयास किया जिसे
पारमार्थिक प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं--(१) अवधि, (२) भट्टअकलंक ६, हेमचन्द्राचार्य८७ आदि परवर्ती विद्वानों ने भी
मनः पर्याय और (३) केवल जिसका विवेचन हम पूर्व पृष्ठों में अपनी प्रमाणमीमांसा में स्थान दिया। इन दोनों प्रत्यक्षों का संक्षिप्त
कर चुके हैं। परिचय यहां अप्रासंगिक नहीं होगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र में (१) सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष - बाधारहित प्रवृत्ति-निवृत्ति और
प्रत्यक्षप्रमाण की जो व्याख्या आचार्य उमास्वाति ने की है, उसका लोगों का बोलचाल रूप व्यवहार संव्यवहार कहलाता है। इस
मुख्य आधार आगमिक परंपरा-मान्य प्रमाणद्वय ही रहा है, संव्यवहार के लिए जो प्रत्यक्ष माना जाए वह सांव्यवहारिक
इसीलिए उन्होंने प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो ही भेद किए। प्रत्यक्ष है। यह अपरमार्थिक प्रत्यक्ष पाँच इन्द्रियों एवं मन की
प्रत्यक्ष के अंतर्गत उन्होंने सीधे आत्मा से होने वाली अवधि, सहायता से उत्पन्न होता है। यह दो प्रकार का है--
मनःपर्याय एवं केवल इन तीन ज्ञानों को ही लिया और इन्द्रिय - (१) इंद्रियज (२) अनिन्द्रियज।
तथा मन की सहायता से होने वाले ज्ञान को परोक्ष की कोटि में चक्षु आदि इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले को इन्द्रियज और रखा। परवर्ती आचार्यों ने इंद्रिय और मनसापेक्ष को सांव्यवहारिक मनोजनित को अनिन्द्रियज कहते हैं। ध्यातव्य है कि इन्द्रियजनित प्रत्यक्ष की संज्ञा दी एवं अवधि, मनःपर्याय और केवल को ज्ञान में भी मन का व्यापार होता है तथापि मन वहाँ साधारण पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा। देखा जाए तो यह इंद्रिय मन-प्रत्यक्ष कारण एवं इन्द्रिय असाधारण कारण होने से उसे इन्द्रियज या भी अनुमान के समान परोक्ष ही है, क्योंकि उमें संशय, विपर्यय इन्द्रियसांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। इन्द्रिय और अनिन्द्रिय की और अनध्यवसाय हो सकते हैं जैसे असिद्ध, विरुद्ध और सहायता से होने वाले ज्ञान को आचार्य उमास्वाति ने अनेकान्तिक अनुमान। जैसे शब्द-ज्ञान संकेत की सहायता से
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