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________________ ब्रह्मचर्य : स्वरूप एवं साधना राष्ट्रसन्त उपाध्याय अमर मुनि......) ब्रह्मचर्य की प्रशंसा कौन नहीं करता? हमारे शास्त्र ब्रह्मचर्य किसी पात्र को जंग लग गई है, किसी धातु के बरतन की चमक की महिमा का गान करते हुए कहते हैं - कम हो गई है, तो चमक लाने के लिए माँजने वाला उसे घिसता है, उसे साफ करता है। तो ऐसा करके वह कोई नई चमक उसमें देवदाणवगंधव्वा, जक्खरवखसकिन्नरा। वंभयारि नमसंति, दुक्करं जे करेन्ति तं॥ पैदा नहीं करता है। उस बरतन में जो चमक विद्यमान है और जो जो महान् पुरुष दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, समस्त बाह्य वातावरण से दब गई या छिप गई है, उसे प्रकट कर देना ही दैवी शक्तियाँ उनके चरणों में सिर झुका कर खड़ी हो जाती है। माँजने वाले का काम है। सोना, कीचड़ में गिर गया है और देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर ब्रह्मचारी के चरणों उसकी चमक छिप गई है। उसे साफ करने वाला सोने में कोई में लोटते हैं। नई चमक बाहर से नहीं डाल रहा है, सोने को सोना नहीं बना रहा है, सोना तो वह हर हालत में है ही। जब कीचड़ में नहीं पड़ा परन्तु हमें यह जानना है कि ब्रह्मचर्य कैसे प्राप्त किया था, तब भी सोना था और जब कीचड़ से लथपथ हो गया, तब जाता है और किस प्रकार उसकी रक्षा हो सकती है? भी सोना ही है और जब साफ कर लिया गया, तब भी सोने का इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए एक बात पहले समझ सोना ही है। उसमें चमक पहले भी थी और बाद में भी है। बीच लेनी चाहिए। वह यह है कि ब्रह्मचर्य का भाव बाहर से नहीं में, जब वह कीचड़ में लथपथ हो गया, तो उसकी चमक दब लाया जाता है। वह तो अन्तर में ही है, किन्तु विकारों ने उसे दबा गई थी। माँजने वाले ने बाहर से लगी हुई कीचड़ को साफ कर रक्खा है। दिया, आए हुए विकार को हटा दिया तो सोना अपने असली जैन-धर्म ने यही कहा है कि बाह्य में ऐसी कोई भी नई रूप में आ गया। चीज नहीं है, जो इस पिण्ड में न हो। केवल ज्ञान और केवल आत्मा के जो अनन्त गुण हैं, उनके विषय में भी जैन-धर्म दर्शन की जो महान् ज्योति मिलती है, उसके विषय में कहने को की यही धारणा है। जैन-धर्म कहता है कि गुण बाहर से नहीं तो कहते हैं कि वह अमुक दिन और अमुक समय मिल गई, आते हैं, वे अन्दर ही रहते हैं। परन्तु आत्मिक विकार उनकी कोई नवीन चीज नहीं मिलती है। हम केवल चमक को दबा देते हैं। साधक का यही काम है कि वह उन ज्ञान, केवल दर्शन और दूसरी आध्यात्मिक शक्तियों के लिए विकारों को हटा दे। विकार हट जाएँगे तो आत्मा के गुण अपनी आविर्भाव शब्द का प्रयोग करते हैं। वस्तुत: केवल ज्ञान आदि असली आभा को लेकर चमकने लगेंगे। शक्तियाँ उत्पन्न नहीं होती हैं, आविर्भूत होती हैं। उत्पन्न होने का हिंसामय विकार को साफ करेंगे तो अहिंसा चमकने लगेगी। अर्थ नई चीज का बनना है, और आविर्भाव का अर्थ है - असत्य का सफाया करेंगे तो सत्य चमकने लगेगा। इसी प्रकार विद्यमान वस्तु का, आवरण हटने पर सामने आ जाना। स्तेय-विकार को हटाने पर अस्तेय और विषय-वासना को दूर जैनधर्म प्रत्येक शक्ति के लिए आविर्भाव शब्द का प्रयोग करने पर संयम की ज्योति हमें नजर आने लगती है। जब क्रोध करता है, क्योंकि किसी वस्तु में कोई भी अभूतपूर्व शक्ति को दूर किया जाता है तो क्षमा प्रकट हो जाती है और लोभ को उत्पन्न नहीं होती है। हटाया जाता है तो सन्तोष गुण प्रकट हो जाता है। अभिमान को तो आत्मा की जो शक्तियाँ हैं, वे अन्तर में विद्यमान हैं दूर करना हमारा काम है, किन्तु नम्रता पैदा करने का कोई काम किन्तु वासनाओं के कारण दबी रहती हैं। हमारा काम उन नहीं। वह तो आत्मा में मौजूद ही है। इसी प्रकार माया को हटाने वासनाओं को दूर करना है। इसी को साधना कहते हैं। जैसे के लिए हमें साधना करनी है, सरलता को उत्पन्न करने के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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