SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 683
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार करते हैं, कभी मन, वचन, काया को विकृत नहीं होने देते उसका दूसरे तप कुछ भी नहीं है, ब्रह्मचर्य ही सर्वोत्तम तप है। का असिधाराव्रत है। संसार में ऐसे स्त्री-पुरुष विरले ही हैं। जिसने अपने वीर्य को वश में कर लिया वह मनुष्य नहीं देवता जैन-शास्त्रों में इसके विषय में विजय सेठ-सेठानी का उदाहरण है। यह जानकर अमोघ फल प्रदान करने वाले ब्रह्मचर्य तप की विद्यमान है। शास्त्रकार इस प्रकार के ब्रह्मचारियों के विषय में साधना करनी चाहिए। स्पष्ट कहते हैं - ___ पुरुषों के समान महिलाओं लिए भी अपने शील की देव दाणव गंधबा, जक्ख रक्खस किन्नरा। सर्वप्रकार से रक्षा करना अत्यावश्यक है। स्त्रियाँ भी तीन प्रकार बंभयारी नमस्संति, दुक्करं जे करेंति ते॥ की होती हैं। उत्तम, मध्यम और जघन्य। जो स्त्रियाँ अपने पति जो मनुष्य असिधारा व्रत के समान ब्रह्मचर्य का पालन के अनकल रहकर अपने शीलव्रत का अखंड रूप से पालन करते हैं उनको देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किनर आदि करती हैं. मन, वचन और काया से कभी परपरुष का स्मरण सभी नमस्कार करते हैं। काल के प्रभाव से उस सुवर्ण-युग का नहीं करतीं और न उसे देखने में अभिलाषा रखती हैं। परिचित अन्त हो गया और वह किरण भी प्रायः सदा के लिए अस्त हो या अपरिचित अन्य पुरुषों के साथ एकान्त स्थल में न कभी गई। तभी तो आज सर्वत्र असदाचार व व्यभिचार आदि का घोर वार्तालाप करती हैं और न किसी प्रकार का संपर्क रखती हैं। अंधकार छाया हुआ है। इसी अंधकार में साधु और गृहस्थ अपने पति से संतुष्ट रहकर उसके चित्त में कभी उद्वेग पैदा नहीं अज्ञानी एवं कामी बनकर अपने कर्तव्य से च्युत हो गए। जहाँ होने देती। यदि पैदा हुआ भी तो उसको दूर करने का प्रयत्न गृहस्थ को केवल स्वदारा संतोष-व्रत का अधिकार था, वहाँ वह अपनी वासनापूर्ति के लिए कई अन्य अबलाओं का सतीत्व करती हैं। पति एवं कुटुम्बियों को सदाचाररत बनाती हैं और नष्ट करने में नहीं चूकता। इसी प्रकार जहाँ साधु को एकान्तवासी अपनी होशियारी से कभी उनको कमार्गगामी नहीं होने देती हैं, बनकर मानसिक ब्रह्मचर्य-तप की सर्वोत्तम साधना करनी थी. वे स्त्रिया उत्तम स्त्रियाँ हैं। वहाँ वह बिना किसी व्यवधान के सुन्दरियों से प्रेमालाप और जो स्त्रियाँ अपने पति को तो किसी प्रकार का सन्ताप नहीं उनके सम्पर्क में पकड़कर अपने अमूल्य ब्रह्मचर्य को दूषित देती और अपने शील को भी खण्डित नहीं होने देती. परन्त करने में भी नहीं हिचकता। यह है विषम दशा आज के देश और बार अपने कुटुम्ब को अनुकूल नहीं बना सकती। कभी-कभी अपने काम्ब: समाज की जिसे देखकर हृदय आन्तरिक वेदना से सन्तप्त हुए कौटुम्बिक वातावरण अशान्त बनाकर अपने पति के सन्ताप और बिना नहीं रहता। अतएव आत्मोन्नति और लोकोपकार के लिए का कारण बन जाती है। अपने स्वार्थ के लिए घरं की परिस्थिति प्रत्येक गृहस्थ एवं साधु को को लक्ष्य में न रखकर हठाग्राह या मनमुटाव का, चिंता या न तपस्तप इत्याहुब्रह्मचर्यं तपोत्तमम्। परेशानी का कारण बनी रहती है। ऊर्ध्वरेता भवेद् यस्तु स देवो न तु मानवः।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy