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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार किसी समय ब्रह्माजी तपोवन में तपस्या कर रहे थे। तपस्या जिन अज्ञानियों का यह मन्तव्य है कि "अपुत्रस्य गति स्ति, करते-करते उन्हें लगभग ३०० वर्ष बीत गए। यह देखकर इंद्र स्वर्ग नैव च नैव च" अर्थात पुत्ररहित पुरुष को मुक्ति नहीं को अत्यंत भय पैदा हुआ कि ऐसा न हो कि इनकी तपस्या मिलती। और स्वर्ग तो उसे कभी मिल ही नहीं सकता। यह सिद्ध होने पर मेरे इंद्रासन की मर्यादा लुप्त हो जाए? अतः इन्द्र ने कथन केवल अज्ञानमूलक है, क्योंकि प्राचीन समय में अनेक तिलोत्तमा अप्सरा को तपोभंग करने के लिए ब्रह्माजी के पास महर्षि, हनुमान, भीष्म पितामह आदि के पुत्र नहीं थे, परन्तु वे भेजा। उसने तपोवन में आकर अपने आकर्षक हाव-भाव तथा मुक्तिगामी हुए हैं। उन्होंने अखण्ड ब्रह्मचर्य का परिपालन करके कटाक्षों द्वारा ब्रह्माजी पर अपना जादू डाला और उसका ऐसा मुक्ति प्राप्ति की है। पौराणिक कथन भी है कि 'स्वर्गं गच्छन्ति असर हुआ कि ब्रह्माजी अपने आपको अधिक न सँभाल सके। ते सर्वे, ये केचिद् ब्रह्माचारिणः' जो पूर्ण ब्रह्मचारी हैं वे सभी स्वर्ग अप्सरा जिस ओर अपने पाँव रखती, ब्रह्माजी उसी ओर वासनापूर्ण में जाते हैं, उनमें कतिपय में मोक्ष भी प्राप्त करते हैं। कामदृष्टि से टकटकी लगाकर निहारते रहे। अप्सरा थोड़े ही पत्रप्राप्ति होने से ही कोई मनष्य मोक्षाधिकारी या समय में इंद्र के पास लौट आई और ब्रह्माजी अपनी मानसिक
स्वर्गाधिकारी नहीं बन सकता। पुत्र यदि असदाचारी और लम्पट विह्वलता से यों ही तरसते रहे, वे अपनी तीन हजार वर्ष तक
हुआ तो उसकी चिंता से पिता के उभय लोक बिगड़ जाते हैं। की हुई तपस्या के फल से क्षण भर में हाथ धो बैठे। इसलिए
वह इस लोक में अशुभ गतियों का पात्र बन जाता है। इसी प्रकार सर्वप्रथम कायिक और वाचिक ब्रह्मचर्य के मूलभूत मानसिक
व्याभिचारी का पुत्र कभी सुयोग्य और सदाचारी नहीं बन सकता। ब्रह्मचर्य का पालन करना उचित एवं हितकर है। ब्रह्मचर्य के ।
वह अपने कुत्सित आचरणों द्वारा अपने विशुद्ध कुल को भी भेदोपभेद जानकर उसके महत्त्वतथा प्रभाव की ओर ध्यान देना
कलंकित किए बिना नहीं रहता। ब्रह्माचारी के पुत्र प्रतापी 'सदाचारी अनुचित एवं अप्रासंगिक न होगा।
और सदुपदेशशील होते हैं। किंवदन्ती भी है कि पारस के प्रसंग ब्रह्मचर्य की महिमा अपार है, वाणी या लेखनी से उसका से लोहा सोना बन जाता। अखण्ड ब्रह्मचारी पारस के समान है। वर्णन करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। ब्रह्मचर्य वह जिसके संसर्ग में अबोध व्यक्ति भी सुवर्ण सदृश गुणवान और उग्रव्रत है, जिसकी साधना से मनुष्य नर से नारायण (परमात्मा) जनपूज्य बन जाता है। ब्रह्मचर्य में कितनी शक्ति है? यह अब बनता है और वह सबका पूज्य होता है।
भलीभाँति समझ में आ सकता है। आचार्य देवश्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज लिखते हैं
ब्रह्मचर्य का पालन साधु, मुनि या संन्यासी ही कर सकता चिरायुषः सुसंस्थानां दृढ़संहनना नराः।
है, गृहस्थ नहीं' ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। ब्रह्मचर्य तो साधु तेजस्विनो महावीर्याः भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः।
और गृहस्थ दोनों का अमूल्य अलंकार है। केवल योग्यता और प्राणभूतं चरित्रस्य परब्रहैक कारणम्।
शक्ति के तारतम्य का ध्यान रखते हुए गृहस्थ एवं साधु की समाचरन् ब्रह्मचर्यं पूजितैरपि पूज्यते॥
ब्रह्मचर्य-मर्यादा में कुछ भेद है। गृहस्थ को अपनी विवाहिता जो मनुष्य विधिवत् ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वे चिरायु,
पत्नी के अतिरिक्त संसार की अन्य समस्त महिलाओं को माता सुंदर शरीर, दृढ़संहननी, तेजस्वितापूर्ण और बडे पराक्रमी होते व भगिनी की दृष्टि से देखना चाहिए। स्त्री-प्रसंग करते समय भी हैं। ब्रह्मचर्य सच्चरित्रता का प्राणस्वरूप है और परब्रह्मप्राप्ति ऋतुकालाभिगामा हाकर अपना मयादा का ध्यान रखना चाहिए। का मुख्य कारण है। इसका पालन करता हुआ मनुष्य पूज्य जो गृहस्थ त्रिधा (मन, वचन और काया) योग से अखण्ड लोगों के द्वारा भी पूजा जाता है।
ब्रह्मर्य का पालन करते हैं और कभी भी किसी प्रकार से इस प्रकार कई महर्षि, मुनि और शास्त्रों ने ब्रह्मचर्य की।
विकाराधीन नहीं होते, उनका यह व्रत असिधाराव्रत कहलाता महिमा गाई है और इसकी साधना से अमोघ सिद्धियाँ प्राप्त की
है। दिनकरी टीकाकार ने लिखा है कि एकस्यामेव शय्यायां मध्ये हैं। यहाँ तक कि अनन्त सुखमय मोक्षपद भी इसी से मिलता है।
खड्गं विधाय स्त्री पुंसौ यत्र ब्रह्मचर्येण स्वपितः तदसिधारा व्रतम् अर्थात् स्त्री पुरुष दोनों एक ही शय्या पर जहाँ ब्रह्मचर्य से शयन
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