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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म .
ताड़पत्रीय जैसलमेर की प्रति का परिचय मुनि श्री पुण्यविजय-सम्पादित हरिभद्र के ग्रन्थों में मिलते हैं । इनमें सबसे पूर्ववर्ती जिनभद्र का सत्ता'जैसलमेर कलेक्शन' पृष्ठ ६८ में इस प्रकार प्राप्य है : “क्रमांक १९६, समय भी शक संवत् ५३० अर्थात् विक्रम संवत् ६६५ के लगभग जम्बू द्वीपक्षेत्रसमासवृत्ति, पत्र २६, भाषा, प्राकृत-संस्कृत, कर्ता : हरिभद्र है। अत: हरिभद्र के स्वर्गवास का समय विक्रम संवत् ५८५ किसी आचार्य, प्रतिलिपि ले० सं० अनुमानत: १४वीं शताब्दी ।" भी स्थिति में प्रामाणिक सिद्ध नहीं होता। इस प्रति के अन्त में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है -
हरिभद्र को जिनभद्रगणि, सिद्धसेनगणि और जिनदासमहत्तर इति क्षेत्रसमासवृत्तिः समाप्ता ।
का समकालिक मानने पर पूर्वोक्त गाथा के वि० सं० ५८५ को शक विरचिता श्री हरिभद्राचार्यैः ।।छ।।
संवत् मानना होगा और इस आधार पर हरिभद्र का समय ईसा की सातवीं लघुक्षेत्रसमासस्य वृत्तिरेषा समासतः ।
शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध होता है । हरिभद्र की कृति दशवैकालिकवृत्ति रचिताबुधबोधार्थ श्री हरिभद्रसूरिभिः ।।१।।
में विशेषावश्यकभाष्य की अनेक गाथाओं का उल्लेख यही स्पष्ट करता पञ्चाशितिकवर्षे विक्रमतो बज्रति शुक्लपञ्चम्याम् । है कि हरिभद्र का सत्ता-समय विशेषावश्यकभाष्य के पश्चात् ही होगा । शुक्रस्य शुक्रवारे शस्ये पुष्ये च नक्षत्रे ।।२।।
भाष्य का रचनाकाल शक संवत् ५३१ या उसके कुछ पूर्व का है । अत: ___ ठीक इसी प्रकार का उल्लेख अहमदाबाद, संवेगी उपाश्रय के यदि उपर्युक्त गाथा के ५८५ को शक संवत् मान लिया जाय तो दोनों हस्तलिखित भण्डार की सम्भवतः पन्द्रहवीं शताब्दी में लिखी हुई क्षेत्र में संगति बैठ सकती है । पुन: हरिभद्र की कृतियों में नन्दीचूर्णि से भी समास की कागज की एक प्रति में उपलब्ध होता है ।
कुछ पाठ अवतरित हुए हैं । नन्दीचूर्णि के कर्ता जिनदासगणिमहत्तर ने दूसरी गाथा में स्पष्ट शब्दों में श्री हरिभद्रसूरि ने लघुक्षेत्रमास- उसका रचना-काल शक संवत् ५९८ बताया है । अत: हरिभद्र का सत्ता वृत्ति का रचनाकाल वि० सं० (५) ८५, पुष्यनक्षत्र शुक्र (ज्येष्ठ) मास, समय शक संवत् ५९८ तदनुसार ई. सन् ६७६ के बाद ही हो सकता शुक्रवार-शुक्लपञ्चमी बताया है । यद्यपि यहाँ वि० सं० ८५ का उल्लेख है। यदि हम हरिभद्र के काल सम्बन्धी पूर्वोक्त गाथा के विक्रम संवत् है । तथापि जिन वार-तिथि-मास-नक्षत्र का यह उल्लेख है उनसे वि० को शक संवत् मानकर उनका काल ईसा की सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध सं० ५८५ का ही मेल बैठता है । अहमदाबाद वेधशाला के प्राचीन एवं आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माने तो नन्दीचूर्णि के अवतरणों की ज्योतिष विभाग के अध्यक्ष श्री हिम्मतराम जानी ने ज्योतिष और गणित संगति बैठाने में मात्र २०-२५ वर्ष का ही अन्तर रह जाता है । अत: के आधार पर जाँच करके यह बताया है कि उपर्युक्त गाथा में जिन वार- इतना निश्चित है कि हरिभद्र का काल विक्रम की सातवीं/आठवीं अथवा तिथि इत्यादि का उल्लेख है, बड़ वि० सं० ५८५ के अनुसार बिलकुल ईस्वी सन् की आठवीं शताब्दी ही सिद्ध होगा। ठीक है, ज्योतिषशास्त्र के गणितानुसार प्रामाणिक है।
___ इससे हरिभद्र की कृतियों में उल्लिखित कुमारिल, भर्तृहरि, इस प्रकार श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने स्वयं ही अपने समय की धर्मकीर्ति, वृद्धधर्मोत्तर आदि से उनकी समकालिकता मानने में भी कोई अत्यन्त प्रामाणिक सूचना दे रखी है, तब उससे बढ़कर और क्या प्रमाण बाधा नहीं आती । हरिभद्र ने जिनभद्र और जिनदास के जो उल्लेख किये हो सकता है जो उनके इस समय की सिद्धि में बाधा डाल सके ? शंका हैं और हरिभद्र की कृतियों में इनके जो अवतरण मिलते हैं उनमें भी इस हो सकती है कि 'यह गाथा किसी अन्य ने प्रक्षिप्त की होगी' किन्तु वह तिथि को मानने पर कोई बाधा नहीं आती। अत: विद्वानों को जिनविजयजी ठीक नहीं, क्योंकि प्रक्षेप करने वाला केवल संवत् का उल्लेख कर के निर्णय को मान्य करना होगा। सकता है किन्तु उसके साथ प्रामाणिक वार-तिथि आदि का उल्लेख नहीं पुनः यदि हम यह मान लेते हैं कि निशीथचूर्णि में उल्लिखित कर सकता । हाँ, यदि धर्मकीर्ति आदि का समय इस समय में बाधा प्राकृत धूर्ताख्यान किसी पूर्वाचार्य की कृति थी और उसके आधार पर ही उत्पन्न कर रहा हो तो धर्मकीर्ति आदि के समयोल्लेख के आधार पर श्री हरिभद्र ने अपने प्राकृत धूर्ताख्यान की रचना की तो ऐसी स्थिति में हरिभद्रसूरि को विक्रम की छठी शताब्दी से खींचकर आठवीं शताब्दी के हरिभद्र के समय को निशीथचूर्णि के रचनाकाल ईसवी सन् ६७६ से आगे उत्तरार्ध में ले जाने की अपेक्षा उचित यह है कि श्री हरिभद्रसूरि के इस लाया जा सकता है । मुनि श्री जिनविजयजी ने अनेक आन्तर और बाह्य अत्यन्त प्रामाणिक समय-उल्लेख के बल से धर्मकीर्ति आदि को ही छठी साक्ष्यों के आधार पर अपने ग्रन्थ 'हरिभद्रसूरि का समय-निर्णय' में हरिभद्र शताब्दी के पूर्वार्ध या उत्तरार्ध में ले जाया जाय ।
के समय को ई० सन् ७००-७७० स्थापित किया है। यदि पूर्वोक्त गाथा किन्तु मुनि श्रीजयसुन्दरविजयजी की उपर्युक्त सूचना के के अनुसार हरिभद्र का समय विक्रम सं० ५८५ मानते हैं तो जिनविजयजी अनुसार जम्बूद्वीप क्षेत्र समासवृत्ति का रचनाकाल है । पुनः इसमें मात्र द्वारा निर्धारित समय और गाथोक्त समय में लगभग २०० वर्षों का अन्तर ८५ का उल्लेख है, ५८५ का नहीं । इत्सिंग आदि का समय तो रह जाता है। जो उचित नहीं लगता है । अत: इसे शक संवत् मानना सुनिश्चित है । पुनः समस्या न केवल धर्मकीर्ति आदि के समय की है, उचित होगा। इसी क्रम में मुनि जिनविजयजी ने 'चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धार' अपितु जैन-परम्परा के सुनिश्चित समयवाले जिनभद्र, सिद्धसेनक्षमाश्रमण में 'रत्नसंचयप्रकरण' को निम्न गाथा का उल्लेख किया है - एवं जिनदासगणि महत्तर की भी है- इनमें से कोई भी विक्रम संवत् पणपण्णबारससए हरिभद्दोसूरि आसि पुव्वकाए । ५८५ से पूर्ववर्ती नहीं है जबकि इनके नामोल्लेख सहित ग्रन्थावतरण इस गाथा के आधार पर हरिभद्र का समय वीर-निर्वाण संवत
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