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________________ जैन-धर्म में पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठान पूजाविधान, अनुष्ठान और कर्मकाण्डपरक साधनाएँ प्रत्येक तांत्रिक उपासना पद्धति के अनिवार्य अंग हैं। कर्मकाण्डपरक अनुष्ठान और पूजा विधान उसका शरीर है, तो आध्यात्म-साधना उसका प्राण है। भारतीय धर्मों में प्राचीनकाल से ही हमें ये दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। जहाँ प्रारम्भिक वैदिक धर्म कर्मकाण्डात्मक अधिक रहा है, वहीं प्राचीन श्रमण परम्पराएँ आध्यात्मिक साधनात्मक अधिक रहीं हैं। जैन- परम्परा मूलतः श्रमण परम्परा का ही एक अंग है और इसलिए यह भी अपने प्रारम्भिक रूप में कर्मकाण्ड की विरोधी एवं आध्यात्मिक साधना प्रधान रही है मात्र यही नहीं उत्तराध्ययनसूत्र जैसे प्राचीन जैन ग्रन्थों में स्नान, हवन, यज्ञ आदि कर्मकाण्ड का विरोध ही परिलक्षित होता है। उत्तराध्ययनसूत्र की यह विशेषता है कि उसने धर्म के नाम पर किये जाने वाले इन कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों को एक आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया है। तत्कालीन ब्राह्मण वर्ग ने यज्ञ, श्राद्ध और तर्पण के नाम पर कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों के माध्यम से सामाजिक शोषण की जो प्रक्रिया प्रारम्भ की थी, जैन और बौद्ध परम्पराओं ने उनका खुला विरोध किया और इस विरोध में उन्होंने इन सबको एक नया अर्थ प्रदान किया। भारतीय अनुष्ठानों और कर्मकाण्डों में यज्ञ, स्नान आदि अति प्राचीनकाल से प्रचलित रहे हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन उपलब्ध होता है उसमें कहा गया है कि "जो पाँच संवरों से पूर्णतया सुसंवृत हैं अर्थात् इन्द्रियजयी हैं जो जीवन के प्रति अनासक्त हैं, जिन्हें शरीर के प्रति ममत्वभाव नहीं है, जो पवित्र हैं और जो विदेह भाव में रहते हैं, वे आत्मजयी महर्षि ही श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं। उनके लिए तप ही अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है। मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ ही कलली (चम्मच) हैं और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है। यही यज्ञ संयम से युक्त होने के कारण शान्तिदायक और सुखकारक है ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञों की प्रशंसा की है।" स्नान के आध्यात्मिक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसमें कहा गया है- धर्म ही ह्रद (तालाब) है, ब्रह्मचर्य तीर्थ (घाट) है और अंनाकुल दशारूप आत्म प्रसन्नता ही जल है, जिसमें स्नान करने से साधक दोषरहित होकर विमल एवं विशुद्ध हो जाता है। " बुद्ध ने भी अंगुत्तरनिकाय के सुत्तनिपात में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन किया है। उसमें उन्होंने बताया है कि कौन सी अग्नियाँ त्याग करने योग्य हैं और कौन सी अग्नियाँ सत्कार करने योग्य हैं। वे कहते हैं कि "कामाग्नि, द्वेषाग्नि और मोहाग्नि त्याग करने योग्य है और आह्वनीयाग्नि, गार्हपत्याग्नि और दक्षिणाग्नि अर्थात् माता-पिता की सेवा, पत्नी और सन्तान की सेवा तथा श्रमण-ब्राह्मणों की सेवा करने योग्य है। महाभारत के शान्तिपर्व और गीता में भी यज्ञों के ऐसे ही आध्यात्मिक और सेवापरक अर्थ किये गये हैं। Jain Education International इससे स्पष्ट है कि जैन- परम्परा ने प्रारम्भ में धर्म के नाम पर किये जाने वाले कर्मकाण्डों का विरोध किया और अपने उपासकों तथा साधकों को ध्यान, तप आदि की अध्यात्मिक साधना के लिए प्रेरित किया। साथ ही साधना के क्षेत्र में किसी देवी-देवता को उपासना एवं उससे किसी प्रकार की सहायता या कृपा की अपेक्षा अनुचित ही माना। जैन धर्म के प्राचीनतम ग्रंथों में हमें धार्मिक कर्मकाण्डों एवं विधि-विधानों के सम्बन्ध में केवल तप एवं ध्यान की विधियों के अतिरिक्त अन्य कोई उल्लेख नहीं मिलता है। पार्श्वनाथ ने तो तप के कर्मकाण्डात्मक स्वरूप का भी विरोध किया था। आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का नवीं अध्ययन महावीर की जीवनचर्या के प्रसंग में उनकी ध्यान एवं तप साधना की पद्धति का उल्लेख करता है। इसके पश्चात् आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध, दशवैकालिक सूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, आदि ग्रंथों में हमें मुनि-जीवन से सम्बन्धित भिक्षा, आहार, निवास एवं विहार सम्बन्धी विधि- विधान मिलते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के तीसवें अध्याय में तपस्या के विविध रूपों की चर्चा भी हमें उपलब्ध होती है। इसी प्रकार की तपस्याओं की विविध चर्चा हमें अन्तकृत्दशा में भी उपलब्ध होती है, जो कि उत्तराध्ययनसूत्र के तप सम्बन्धी उल्लेखों की अपेक्षा परवर्ती एवं अनुष्ठानपरक है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि अंतगडदसाओ (अंतकृत्दशा) का वर्तमान स्वरूप ईसा की ५वीं शताब्दी के पश्चात् का ही है। उसमें आठवें वर्ग में गुणरत्नसंवत्सरतप, रत्नावलीतप, लघुसिंहक्रीड़ातप, कनकावलीतप, मुक्तावलीतप, महासिंहनिष्क्रीडिततप, सर्वतोभद्रतप, भद्रोत्तरतप, महासर्वतोभद्रतप और आयम्बिलवर्धमानतप आदि के उल्लेख मिलते हैं। हरिभद्र ने तप-पंचाशक में आगमानुकूल उपर्युक्त तपों की चर्चा के साथ ही कुछ लौकिक व्रतों एवं तपों की भी चर्चा की है जो तांत्रिक साधनों के प्रभाव से जैन धर्म में विकसित हुए थे। षडावश्यकों का विकास जहाँ तक जैन श्रमण साधकों के नित्यप्रति के धार्मिक कृत्यों का सम्बन्ध है, हमें ध्यान एवं स्वाध्याय के ही उल्लेख मिलते हैं। उत्तराध्ययन के अनुसार मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में भिक्षाचर्या और चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय करे इसी प्रकार रात्रि के चार प्रहरों मे भी प्रथम में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में निद्रा और चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय करे। नित्य कर्म के सम्बन्ध में प्राचीनतम उल्लेख 'प्रतिक्रमण' अर्थात् अपने दुष्कर्मों की समालोचना और प्रायश्चित्त के मिलते हैं। पार्श्वनाथ और महावीर की धर्मदेशना का एक मुख्य अन्तर प्रतिक्रमण की अनिवार्यता रही है। महावीर के धर्म को सप्रतिक्रमण धर्म कहा गया है। महावीर के धर्मसंघ के सर्वप्रथम प्रतिक्रमण एक दैनिक अनुष्ठन बना। इसी से षडावश्यकों की अवधारणा का १०७] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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