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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व -
संयम-पथ पर बढ़ते कदम माजी गुरुणीजी वात्सल्यमूर्ति श्री हेतश्रीजी की शिष्या
समय साध्वी श्री जयंत श्रीजी....
दीक्षा आध्यात्मिक जीवनोत्थान का प्रथम सोपान है। इसकी सार्थकता इसी में है कि यह साधना के पथ को ज्योतिर्मय कर दे। दीक्षा-दीप प्रज्ज्वलित होकर इस महती भूमिका निर्वाह में सक्षम तभी हो सकता है, जब उसमें वैराग्य की वर्तिका और विवेक का तेज होगा। दीक्षा-दीप अपनी इस सार्थकता के अभाव में उपेक्षणीय और कांतिहीन लघु मृत्तिका पात्र के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी म.सा ने दीक्षा का यही सार्थक स्वरूप अति प्रारंभ से स्वीकार किया था। ऐसे दीक्षाव्रत को अंगीकार करने के लिए उनका मन उद्विग्न रहा करता था और इसकी पात्रता-अर्जन हेतु ज्ञान-साधन में तल्लीन रहा करते थे। दीक्षाव्रत अंगीकार करने के पश्चात साध्वाचार के अनुरूप अपना-आचरण बनाये रखने के लिए आप सदैव सचेत रहते थे। इसका कारण यह था कि संयम-पालन में आपको शिथिलता पसंद नहीं थी, दूसरे आपके गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. तपस्वी और शुद्ध साध्वाचारी थे। ऐसे महान् एवं सच्चे साधु के सान्निध्य में रहना तभी सम्भव है, जब निष्ठापूर्वक संयम-पालन की भावना हो। मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. ने दस वर्षावास अपने जीवननिर्माता गुरुदेव के सान्निध्य में सम्पन्न किये। इस अवधि में गुरुदेव के द्वारा दीक्षाएँ भी दी गयीं। प्रतिष्ठायें भी सम्पन्न करवायी गयीं। तपों के उद्यापन कराये, शास्त्र भण्डारों की स्थापना करायी। प्राचीन एवं प्रसिद्ध जिनालयों का जीर्णोद्वार कराया । संघों में एकता स्थापित कर विघटन होने से बचाया। अनेक सुप्रसिद्ध तीर्थ-स्थलों की यात्राएँ की। विहारकाल में विभिन्न ग्राम-नगरों में विचरण किया। मार्गों में आनेवाली कठिनाइयों को न केवल देखा वरन् स्वयं भोगा भी। इन सबको मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. ने अति निकट से देखा और उन क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त किया। गुरुदेव के सर्वतो-मुखी अनुभव एवं ज्ञान का लाभ भी मिला। कब किस परिस्थिति में कैसा व्यवहार किया जाता है। यह प्रत्यक्ष सीखने को मिला। एक योग्य, तेजस्वी तथा ओजस्वी गुरुदेव के परम पावन सान्निध्य में रहते हुए आपने व्यावहारिक एवं सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त किया।
दस वर्षावास की संक्षिप्त झलक कुछ इस प्रकार है- वि.सं. १९५४ के रतलाम-वर्षावास में आपने संस्कृत-व्याकरण का अध्ययन किया। साधुक्रिया के सूत्रों का अध्ययन किया। सं. १९५५ के आहोर वर्षावास के पश्चात् आहोर में ही बड़ी दीक्षा का कार्यक्रम प्रतिष्ठांजन-शलाका का उत्सव पहली बार देखा
और क्रियाओं में अपने गुरुदेव के साथ रहकर व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया। वि.सं. १९५६ के शिवगंज वर्षावास में गुरुदेव ने ३५ बोल की समाचारी निर्मित की। यह समाचारी साध्वाचार में शिथिलता बचाने के लिए थी। वर्षावास के पश्चात् गौड़वाड़ के प्रसिद्ध नगर बाली में गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.
और पू. हेत विजयजी तूर्यक में हुए शास्त्रार्थ को प्रत्यक्ष देखा। गुरुदेव के पांडित्य और शास्त्रार्थ-शैली का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया। वि.सं. १९५७ का वर्षावास सियाणा में था। यहाँ गुर्जर सम्राट् कुमार पाल
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