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________________ यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - द्वारा निर्मित विशाल जिनालय है। उस मंदिर का जीर्णोद्धार करने का गुरुदेव ने उपदेश दिया। वि.सं. १९५८ में आहोर वर्षाकाल के पश्चात् उपधान तप का विशाल आयोजन किया गया था। इसमें आप को गुरुदेव ने विशेष क्रियादक्षता के संचालन की आज्ञा फरमाई थी वि.सं. १९५९ में वर्षावास जालोर था। गुरुदेव ने यहाँ के तीर्थ की प्रतिष्ठांजन शलाका करवायी। यहाँ कुछ परिवारों में आपस में वैमनस्य था। गुरुदेव ने उनका वैमनस्य दूर कर एकता स्थापित की। मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. ने काफी आगम-साहित्य व संस्कृत-प्राकृत का ज्ञान प्राप्त किया। गुरुदेव द्वारा शास्त्र भण्डारों की सुरक्षा के लिए आहोर में ज्ञान - भंडार भी स्थापित करवाया। श्री यतीन्द्र विजयजी म. ज्ञान पिपासु तो प्रारंभ से ही थे। ज्ञान भंडार का निर्माण करवाने से आपको शास्त्रों को सुरक्षित रखने की विधि का ज्ञान मिला। वि.सं. १९५९ में वर्षावास सूरत में व्यतीत किया। आपने सूरत में गुरुदेव के प्रभाव को प्रत्यक्ष देखा। जो विद्वेषी तथा विरोधी थे वे गुरुदेव के प्रखर पांडित्य और सच्चे साधुत्व को देखकर उनके सम्मुख नतमस्तक हो गये। वि.सं. १९६१ का वर्षाकाल कुक्षी में सम्पन्न किया। इस वर्षावास में गुरुदेव के उपदेश एवं प्रभाव को प्रत्यक्ष देखा। गुरुदेव के प्रभाव से झाबुआ नरेश उदयसिंह ने अनेक देवस्थानों पर होने वाले पशुवध को रोकने के आदेश दिये। तदनन्तर गुरुदेव की आज्ञा से मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म.स. ने बोरीग्राम और गुणदी में जाकर सन् १९६१ में स्वतंत्र रूप से प्रतिष्ठाएँ करवायीं। वि.सं. १९६२ का वर्षावास गुरुदेव के साथ खाचरौद में व्यतीत किया। इस वर्षावास में गुरुदेव ने चिरोला-वासियों को ढाई सौ वर्षों के पश्चात् पुनः समाज में प्रवेश दिलवाया। मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. भी सम्पूर्ण कार्रवाई के समय अपने गुरुदेव के साथ रहे। सब कुछ प्रत्यक्ष देखा, सुना और सम्पन्न करवाने की शैली का ज्ञान प्राप्त किया। इस अवधि में आपको यह जानकारी भी मिली कि अच्छे -अच्छे आचार्य एवं प्रभावक मुनिराज एवं श्रावक भी परिश्रम कर चुके थे, किन्तु उनके प्रयास निरर्थक ही रहे। अपने गुरुदेव के तेजस्वी व्यक्तित्व और ओजस्वी व्याख्यान के कारण यह असम्भव कार्य आपने अपनी आँखों से सम्भव होते देखा। वि.सं. १९६३ का वर्षाकाल बड़नगर में व्यतीत किया। इस समय तक गुरुदेव द्वारा रचित अभिधानराजेन्द्र कोष का कार्य पूर्ण हो चुका था। इस कोष के निर्माण में आपने गुरुदेव के कठोर परिश्रम को देखा था। कोष पूरा हो तो गया, किन्तु गुरुदेव कुछ अस्वस्थ रहने लगे उनके हृदय में अंदर ही अंदर एक पीड़ा और भी थी। उसे मुनिराज श्री दीप विजय जी म. और आपने पहचाना और कोष के सम्पादन और प्रकाशन का उत्तरदायित्व स्वीकार किया। दोनों मुनिराजों के ऐसा करने से गुरुदेव को संतोष हुआ। गुरुदेव अस्वस्थ रहने लगे थे। गुरुदेव अपने शिष्यों के साथ राजगढ़ (धार) पधारे और यहीं पौष शुक्ला ६ को आपका देवलोक-गमन हो गया। अपने जीवन-निर्माता गुरुदेव के स्वर्गगमन से आपको गहरा आघात तो लगा किन्तु आपने वास्तविकता को स्वीकार कर लिया। कि गुरुदेव के जीवन-काल में ही आपने तीन स्तुति की प्राचीनता नामक एक पुस्तक की रचना की थी। इस पुस्तक का अध्ययन करने से आपका पांडित्य प्रकट होता है। गुरुदेव की आज्ञा से आपने बोरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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