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________________ -यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म - है किन्तु वृत्ति अनुपलब्ध है । जीवाभिगमसूत्र पर आचार्य मलयगिरि पद में उपयोग और पश्यता की भेदरेखा स्पष्ट करते हुए साकार उपयोग कृत एकमात्र वृत्ति उपलब्ध है जिसमें अनेक ग्रन्थ और ग्रन्थकारों के आठ प्रकार और साकार पश्यता के छ: प्रकार बताए गए हैं। का नामोल्लेख भी किया गया है । उसमें हरिभद्रकृत तत्त्वार्थ टीका का उल्लेख है, परन्तु जीवाभिगम पर उनकी किसी वृत्ति का आचार्य हरिभद्र की स्वतंत्र कृतियाँ उल्लेख नहीं है। षोडशक - इस कृति में एक-एक विषयों को लेकर १६-१६ ६. चैत्यवन्दनसूत्र-वृत्ति (ललितविस्तरा) - चैत्यवन्दन के पद्यों में आचार्य हरिभद्र ने १६ षोडशकों की रचना की है । ये १६ सूत्रों पर हरिभद्र ने ललितविस्तरा नाम से एक विस्तृत व्याख्या की रचना षोडशक इस प्रकार हैं - (१) धर्मपरीक्षाषोडशक,(२) सद्धर्मदेशनाषोडषक, की है । यह कृति बौद्ध-परम्परा के ललितविस्तर की शैली में प्राकृत मिश्रित (३) धर्मलक्षणषोडशक (४)धर्मलिंगषोडशक, (५) लोकोत्तरतत्त्वप्राप्तिषोडशक, संस्कृत में रची गयी है । यह ग्रंथ चैत्यवन्दन के अनुष्ठान में प्रयुक्त होने (६) जिनमंदिर निर्माणषोडशक, (७) जिनबिम्बषोडशक,(८) प्रतिष्ठाषोडशक, वाले प्राणातिपातदण्डकसूत्र (नमोत्थुणं), चैत्यस्तव (अरिहंत चेईयाणं), (९) पूजास्वरूपषोडशक, (१०) पूजाफलषोडशक, (११) श्रुतज्ञानलिङ्गषोडशक, चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स), श्रुतस्तव (पुक्खरवर), सिद्धस्तव (सिद्धाणं- (१२) दीक्षाधिकारिषोडशक, (१३) गुरुविनयषोडशक, (१४) योगभेद षोडशक, बुद्धाणं), प्रणिधानसूत्र (जय-वीयराय) आदि के विवेचन के रूप में लिखा (१५) ध्येयस्वरूपषोडशक (१६) समरसषोडशक । इनमें अपने-अपने गया है। मुख्यत: तो यह ग्रन्थ अरहन्त परमात्मा की स्तुतिरूप ही है, परन्तु नाम के अनुरूप विषयों की चर्चा है। आचार्य हरिभद्र ने इसमें अरिहन्त परमात्मा के विशिष्ट गुणों का परिचय देते विंशतिविंशिका - विंशतिविंशिका नामक आचार्य हरिभद्र की हुए अन्य दार्शनिक विचारधाराओं के परिप्रेक्ष्य में तर्कपूर्ण समीक्षा भी की यह कृति २०-२० प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है । ये विशिकाएँ है। इसी प्रसंग में इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम यापनीय-मान्यता के आधार पर निम्नलिखित हैं-प्रथम अधिकार विंशिका में २० विशिकाओं के विषय का स्त्रीमुक्ति का समर्थन किया गया है । विवेचन किया गया है । द्वितीय विंशिका में लोक के अनादि स्वरूप का ७. प्रज्ञापना-प्रदेश-व्याख्या - इस टीका के प्रारम्भ में विवेचन है । तृतीय विंशिका में कुल, नीति और लोकधर्म का विवेचन जैनप्रवचन की महिमा के बाद मंगल की महिमा का विशेष विवेचन है। चतुर्थ विंशिका का विषय चरमपरिवर्त है । पाँचवीं विंशिका में शुद्ध करते हुए आवश्यक टीका का नामोल्लेख किया गया है । भव्य और धर्म की उपलब्धि कैसे होती है, इसका विवेचन है । छठी विंशिका में अभव्य का विवेचन करने के बाद प्रथम पद की व्याख्या में प्रज्ञापना के सद्धर्म का एवं सातवीं विंशिका में दान का विवेचन है। आठवीं विंशिका विषय, कर्तत्व आदि का वर्णन किया गया है । जीव-प्रज्ञापना और में पूजा-विधान की चर्चा है । नवीं विंशिका में श्रावकधर्म, दशवीं अजीव-प्रज्ञापना का वर्णन करते हुए एकेन्द्रियादि जीवों का विस्तारपूर्वक विंशिका में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं एवं ग्यारहवीं विंशिका में वर्णन किया गया है । द्वितीय पद की व्याख्या में पृथ्वीकाय, अप्काय, मुनिधर्म का विवेचन किया गया है । बारहवीं विंशिका भिक्षा-विंशिका अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा द्वीन्द्रियादि के स्थानों का है। इसमे मुनि के भिक्षा-सम्बन्धी दोषों का विवेचन है । तेरहवीं, वर्णन किया गया है । तृतीय पद की व्याख्या में कायाद्यल्प-बहुत्व, शिक्षा-विंशिका है । इसमें धार्मिक जीवन के लिये योग्य शिक्षाएँ प्रस्तुत आयुर्बन्ध का अल्प-बहुत्व, वेद, लेश्या, इन्द्रिय आदि दृष्टियों से जीव की गई हैं। चौदहवीं अन्तरायशुद्धि-विशिंका में शिक्षा के सन्दर्भ में होने विचार, लोक सम्बन्धी अल्प-बहुत्व, पुद्गलाल्प-बहुत्व, द्रव्याल्प-बहुत्व वाले अन्तरायों का विवेचन है । ज्ञातव्य है कि इस विंशिका में मात्र छ: अवगाढाल्प-बहुत्व आदि पर विचार किया गया है। चतुर्थ पद में नारकों गाथाएँ ही मिलती हैं, शेष गाथाएँ किसी भी हस्तप्रति में नहीं मिलती की स्थिति तथा पञ्चम पद की व्याख्या में नारकपर्याय, अवगाह, हैं । पन्द्रहवीं आलोचना-विंशिका है। सोलहवीं विंशिका प्रायश्चित्त विंशिका है। इसमें विभिन्न प्रायश्चित्तों का संक्षिप्त विवेचन है । सत्रहवीं षट्स्थानक, कर्मस्थिति और जीवपर्याय का विश्लेषण किया गया है । विंशिका योगविधान-विंशिका है। उसमें योग के स्वरूप का विवेचन है षष्ठ और सप्तम पद में नारक सम्बन्धी विरहकाल का वर्णन है । अष्टम । अट्ठारहवीं केवलज्ञान-विंशिका में केवलज्ञान के स्वरूप का विश्लेषण पद में संज्ञा का स्वरूप बताया है । नवम पद में विविध योनियों एवं है । उन्नीसवीं सिद्धविभक्ति-विंशिका में सिद्धों का स्वरूप वर्णित है । दशम पद में रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों का चरम और अचरम की दृष्टि से बीसवीं सिद्धसुख-विंशिका है जिसमें सिद्धों के सुख का विवेचन है। इस विवेचन किया गया है । ग्यारहवें पद में भाषा के स्वरूप के साथ ही प्रकार इन बीस विंशिकाओं में जैनधर्म और साधना से सम्बन्धित विविध स्त्री, पुरुष और नपुंसक के लक्षणों को बताया गया है। बारहवें पद में निति औदारिकादि शरीर के सामान्य स्वरूप का वर्णन तथा तेरहवें पद की व्याख्या में जीव और अजीव के विविध परिणामों का प्रतिपादन किया योगविंशिका गया है । आगे के पदों की व्याख्या में कषाय, इन्द्रिय, योग, लेश्या, यह प्राकत में निबद्ध मात्र २० गाथाओं की एक लघु रचना है। काय-स्थिति, अन्तः क्रिया, अवगाहना, संस्थानादि क्रिया, कर्म प्रकृति, इसमें जैन-परम्परा में प्रचलित मन, वचन और काय-रूप प्रवृत्ति वाली कर्म-बन्ध, आहार-परिणाम, उपयोग, पश्यता, संज्ञा, संयम, अवधि, परिभाषा के स्थान पर मोक्ष से जोड़ने वाले धर्म-व्यापार को योग कहा प्रविचार, वेदना और समुद्घात का विशेष वर्णन किया गया है। तीसवें गया है । साथ ही इसमें योग का अधिकारी कौन हो सकता है, इसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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