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---- यतीन्दरिमारग्रदय जैन आमा साहि नहीं रहता है। राग के गिर जाने पर वीतरागता का प्रकटन होता है, में अहिंसा को शाश्वत, नित्य और शुद्ध धर्म कहा गया है, (सव्वे और मुक्ति का द्वार खुल जाता है।
भूया, सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा---एस धम्मे सुद्धे, निइए, सासए
समिच्च लोये खेयण्णेहिं पवेइए-१।४।१) और प्रथम श्रुतस्कन्ध के मन के पवित्रीकरण की मनोवैज्ञानिक विधि
आठवें अध्याय के तीसरे उद्देशक में समता को धर्म कहा गया है, चित्त को अपवित्र नहीं होने देने के लिये मन की वृत्तियों को समियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए (१८।३) वस्तुतः धर्म की ये दो देखना जरूरी है, क्योंकि यह मन को दुष्प्रवृत्तियों से बचाने की एक व्याख्याएँ दो दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अहिंसा व्यावहारिक मनोवैज्ञानिक पद्धति है। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मन एक समाज-सापेक्ष धर्म है, जबकि वैयक्तिक एवं आन्तरिक दृष्टि से समभाव ही समय में द्रष्टा और कर्ता की दो भूमिकाओं का निर्वाह नहीं कर ही धर्म है। सैद्धांतिक दृष्टि से अहिंसा और समभाव में अभेद है, सकता है। उदाहरण के लिए वह अपने क्रोध का कर्ता एवं द्रष्टा एक किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से वे अलग है। समभाव की बाह्य अभिव्यक्ति साथ नहीं हो सकता। मन जब कर्ता से द्रष्टा की भूमिका में आता अहिंसा बन जाती है और यही अहिंसा जब स्वकेन्द्रित (स्वदया) होती है तो मनोविकार स्वयं विलीन होने लगते हैं। मन तो स्वत: ही वासना है तो समभाव बन जाती है।
और विकार से मुक्त हो जाता है। इसलिये कहा गया है-अप्पमत्तो कामेहिं उवरतो-१।२।१। सव्वतो पमत्तस्स भयं-अप्पमत्तस्स नत्थि समत्व या समता धर्म क्यों? भयं-१३।४। जो अप्रमत्त है वह कामनाओं से और पाप कर्मों से यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि समता को धर्म उपरत है, प्रमत्त को ही विषय-विकार में फँसने का भय है अप्रमत्त क्यों माना जावे? जैन-परम्परा के परवर्ती ग्रन्थों में धर्म की व्याख्या को नहीं। अप्रमत्तता या सम्यग्द्रष्टा की अवस्था में पाप-कर्म असम्भव 'वत्थु-सहावो धम्मो' के रूप में की गई है, अत: समता को तभी हो जाता है, इसीलिये कहा गया है-सम्मत्तदंसी न करेइ पावं- धर्म माना जा सकता है जबकि वह प्राणीय स्वभाव सिद्ध हो जावे, ११३१२ अर्थात् सम्यग्द्रष्टा कोई पाप नहीं करता है। आचारांग में मन जरा इस प्रश्न पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें। को जानने अथवा अप्रमत्त चेतना की जो बात बार-बार कही गई है, जैन-दर्शन में मानव-प्रकृति एवं प्राणी- प्रकृति का गहन विश्लेषण वह मन को वासनामुक्त करने का या मन के पवित्रीकरण का एक किया गया है। महावीर से जब यह पूछा गया कि आत्मा क्या है? ऐसा उपाय है जिसकी प्रामाणिकता आधुनिक मनोविज्ञान के प्रयोगों आत्मा का साध्य या आदर्श क्या है? तब महावीर ने इस प्रश्न का से सिद्ध हो चुकी है। जब साधक अप्रमत्त चेतना से युक्त होकर द्रष्टाभाव जो उत्तर दिया था वह आज भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सत्य है। महावीर में स्थित होता है तब सारी वासनायें और सारे आवेग स्वत: शिथिल ने कहा था-आत्मा समत्व रूप है और समत्व ही आत्मा का साध्य हो जाते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र यह कहकर कि “आयंकदंसी न करेइ है (आयाए सामाइए आया सामाइस्स अट्ठ-भगवतीसूत्र)। वस्तुतः पावं -१३।२।" पुन: एक मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया जहाँ भी जीवन है, चेतना है, वहाँ समत्व के संस्थापन के अनवरत गया है। जो अपनी पीड़ा या वेदना को देख लेता है उसके लिये प्रयास चल रहे हैं। परिवेशजन्य विषमताओं को दूर कर समत्व के पापकर्म में फँसना एक मनोवैज्ञानिक असम्भावना बन जाती है। जब लिये प्रयासशील बने, यह जीवन या चेतना का मूल स्वभाव है। शारीरिक व्यक्ति पापकर्म या हिंसा जनित पीड़ा का स्वयं आत्मनिष्ठ रूप में अनुभव एवं मानसिक स्तर पर समत्व का संस्थापन ही जीवन का लक्षण है। करता है, हिंसा करना उसके लिये असम्भव हो जाता है। इस प्रकार डा० राधाकृष्णन् के शब्दों में 'जीवन गतिशील सन्तुलन है ' (जीवन हम देखते हैं कि सूत्रकार पाप से विरत होने के लिए मनोवैज्ञानिक । की आध्यात्मिक दृष्टि, पृ० २५९)। स्पेन्सर के अनुसार परिवेश में सत्यों पर अधिष्ठित पद्धति प्रस्तुत करता है।
निहित तथ्य जीवन के संतुलन को भंग करते रहते है और जीवन
अपनी क्रियाशीलता के द्वारा पुन: इस संतुलन को बनाने का प्रयास धर्म की मनोवैज्ञानिक व्याख्या
करता है। यह संतुलन बनाने का प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है (फर्स्ट आचारांग में अहिंसा, समाधि और प्रज्ञा को मोक्षमार्ग कहा गया । प्रिंसिपल्स-स्पेन्सर, पृ०६६)। विकासवादियों ने इसे ही अस्तित्व है। इसमें अहिंसा को पूर्ण स्थान दिया गया है। यहाँ साधना का क्रम । के लिये संघर्ष कहा है, किन्तु मेरी अपनी दृष्टि में इसे अस्तित्व के अन्दर से बाहर की ओर न होकर बाहर से अन्दर की ओर है, जो लिये संघर्ष कहने की अपेक्षा समत्व के संस्थापन का प्रयास कहना अधिक मनोवैज्ञानिक है। अहिंसा की साधना के द्वारा जब तक परिवेश ही अधिक उचित है। समत्व के संस्थापन एवं समायोजन की प्रक्रिया एवं चित्तवृत्ति निराकुल नहीं बनेगी, समाधि नहीं होगी और जब तक ही जीवन का महत्त्वपूर्ण लक्षण है। समाधि नहीं आएगी प्रज्ञा का उदय नहीं होगा। इस सन्दर्भ में आचारांग इस प्रकार जैन-दर्शन में समभाव या वीतराग दशा को ही के दृष्टिकोण में और परवर्ती जैन-दर्शन के दृष्टिकोण में स्पष्ट अन्तर नैतिक जीवन का आदर्श माना गया है। यह बात मनोवैज्ञानिक दृष्टि है। वह आचार-शुद्धि से विचार-शुद्धि की ओर बढ़ता है। से भी सही उतरती है। संघर्ष नहीं, अपितु समत्व ही जीवन का आदर्श
आचारांग में धर्म क्या है? इसके दो निर्देश हमें उपलब्ध होते हो सकता है, क्योंकि यही हमारा स्वभाव है और जो स्व स्वभाव हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ है वही आदर्श है। स्वभाव से भिन्न आदर्श की कल्पना अयथार्थ है।
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