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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक्रयदय जैन आगम एवं साहित्य - स्पेन्सर, डार्विन एवं आर्सा प्रभृति कुछ पाश्चात्य विचारक संघर्ष को को स्थापित किया है। यद्यपि मेकेंजी ने "भय" को अहिंसा का आधार ही जीवन का स्वभाव मानते हैं, लेकिन यह एक मिथ्या धारणा है। माना है, किन्तु उसकी यह धारणा गलत है, क्योंकि भय के सिद्धान्त आधुनिक विज्ञान के अनुसार वस्तु का स्वभाव वह होता है, जिसका को यदि अहिंसा का आधार बनाया जायेगा तो व्यक्ति केवल सबल निराकरण नहीं किया जा सकता। जैन-दर्शन के अनुसार नित्य और की हिंसा से विरत होगा, निर्बल की हिंसा से नहीं। भय को आधार निरपवाद वस्तुधर्म ही स्वभाव है। यदि हम इसे कसौटी पर कसें तो मानने पर तो जिससे भय होगा उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी, संघर्ष एवं तनाव जीवन का स्वभाव सिद्ध नहीं होता है। द्वन्द्वात्मक जबकि आचारांग तो प्राणियों के प्रति यहाँ तक कि वनस्पति, जल भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य-स्वभाव संघर्ष है, मानवीय इतिहास और पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात करता वर्ग-संघर्ष की कहानी है। संघर्ष ही जीवन का नियम है। किन्तु यह है। अत: आचारांग में अहिंसा को भय के आधार पर नहीं, अपतुि एक मिथ्या धारणा है।यदि संघर्ष ही जीवन का नियम है, तो फिर जिजीविषा और सुखाकांक्षा के मनोवैज्ञानिक सत्यों के आधार पर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद संघर्ष का निराकरण क्यों करना चाहता है, संघर्ष अधिष्ठित किया गया है। पुन: अहिंसा को इन मनोवैज्ञानिक सत्यों मिटाने के लिए होता है। जो मिटाने की, निराकरण करने की वस्तु के साथ-साथ तुल्यता-बोध के बौद्धिक सिद्धान्त पर खड़ा किया गया। है, क्या उसे स्वभाव कहा जा सकता है? संघर्ष यदि मानव-इतिहास वहाँ कहा गया है कि 'जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ-..-एयं का एक तथ्य है तो वह उसके दोषों का इतिहास है, उसके स्वभाव तुल्लमन्नेसिं'-१।१७। जो अपनी पीड़ा को जान पाता है वही तुल्यताका इतिहास नहीं। मानव-स्वभाव संघर्ष नहीं, संघर्ष का निराकरण या बोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा को भी समझ सकता है। यह समत्व की साधना है, क्योंकि युगों से मानवीय प्रयास उसी के लिए प्राणीय पीड़ा की तुल्यता के बोध के आधार पर होने वाला आत्मसंवेदन हो रहे हैं। ही अहिंसा का आधार है। सूत्रकार तो अहिंसा के इस सिद्धान्त को संघर्ष अथवा समत्व से विचलन जीवन में पाये जाते हैं, लेकिन अधिक गहराई तक अधिष्ठित करने के प्रयास स्वरूप यहाँ तक कह वे जीवन के स्वभाव नहीं हैं, क्योंकि जीवन की प्रक्रिया उनको समाप्त देता है कि जिसे तू मारना चाहता है, पीड़ा देना चाहता है, सताना करने की दिशा में ही प्रयासशील है। समता की उपलब्धि ही मनोवैज्ञानिक चाहता है, वह तू ही है (आचारांग, ११५।५)। आगे कहता है कि दृष्टि से जीवन का साध्य है। कामना, आसक्ति, राग-द्वेष, वितर्क आदि जो लोग (लोक) का अपलाप करता है वह स्वयं अपनी आत्मा का सभी मानसिक असंतुलन एवं तनाव की अवस्था को अभिव्यक्त करते अपलाप करता है (आचारांग, ११३)। यहाँ अहिंसा को अधिक है। अत: आचारांग में इन्हें अशुभ माना गया है। इसके विपरीत गहन मनोवैज्ञानिक आधार देने के प्रयास में वह जैन-दर्शन के आत्मा वासनाशून्य, वितर्कशून्य, निष्काम, अनासक्त, वीतराग अवस्था ही सम्बन्धी अनेकात्मवाद के स्थान पर एकात्मवाद की बात करता सा जीवन का आदर्श है क्योंकि वह समत्व की स्थिति है। राग और द्वेष प्रतीत होता है, क्योंकि यहाँ वह इस मनोवैज्ञानिक सत्य को देख रहा की वृत्तियाँ हमारे चेतन समत्व को भंग करती हैं, अत: उनसे ऊपर है कि केवल आत्मभाव में हिंसा असम्भव हो सकती है। जब तक उठकर वीतरागता की अवस्था को प्राप्त कर लेना ही सच्चे समत्व दूसरे के प्रति पर बुद्धि है, परायेपन का भाव है, तब तक हिंसा की की अवस्था है। वस्तुत: समत्व की उपलब्धि आचारांग और आधुनिक सम्भावनाएँ उपस्थित हैं। व्यक्ति के लिए हिंसा तभी असम्भव हो सकती मनोविज्ञान दोनों की दृष्टि से मानव जीवन का साध्य मानी जा सकती है जब उसमें प्राणी-जगत् के प्रति अपनत्व या आत्मीय दृष्टि जागृत है और जो जीवन का साध्य एवं स्वभाव हो, वही धर्म कहा जा सकता हो। अहिंसा की स्थापना के लिए जो मनोवैज्ञानिक भूमिका अपेक्षित है। आचारांग स्पष्ट रूप से कहता है कि जो समता को जानता है थी उसे प्रस्तुत करने में सूत्रकार ने आत्मा की वैयक्तिकता की धारणा वही मुनि-धर्म को जानता है। का भी अतिक्रमण कर उसे अभेद की धारणा पर स्थापित करने का प्रयास किया है। हिंसा के निराकरण के प्रयास में भी सूत्रकार ने एक आचारांग में अहिंसा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और इस मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया है कि हिंसा से हिंसा आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर या घृणा से घृणा का निराकरण सम्भव नहीं है। वह तो स्पष्ट रूप . ही स्थापित करने का प्रयास किया गया है। अहिंसा को अर्हत्-प्रवचन से कहता है-शस्त्रों के आधार पर या भय और हिंसा के आधार का सार और शुद्ध एवं शाश्वत धर्म बताया गया है। पर शान्ति की स्थापना सम्भव नहीं है, क्योंकि एक शस्त्र का प्रतिकार सर्वप्रथम हमें विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना दूसरे शस्त्र के द्वारा सम्भव है। शान्ति की स्थापना तो अहिंसा या जावे। सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है। वह प्रेम द्वारा ही सम्भव है, क्योंकि अशस्त्र से बढ़कर कुछ अन्य नहीं कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः सभी को है (आचारांग, १।३।४)। सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है (सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुक्खपडिकूला–११२।३), अहिंसा का अधिष्ठान यही आचारांग में मानवीय व्यवहार के प्रेरक तत्त्व मनोवैज्ञानिक सत्य है। अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव सामान्यतया राग और द्वेष ये दो कर्म-बीज माने गये हैं, किन्तु है। जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा इनमें भी राग ही प्रमुख तथ्य है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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