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________________ आधुमबन्ध में कोई निश्चित ही एकमात्र मूल अरमानी है। चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य आसक्ति ही कर्म का प्रेरक तथ्य है (१।३।२)। आचारांग और आधुनिक की दृष्टि से इन्द्रिय व्यापारों का निरोध एक अस्वाभाविक तथ्य है। मनोविज्ञान दोनों ही इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि मानवीय व्यवहार आँख के समक्ष जब उसका विषय प्रस्तुत होता है तो वह उसके सौन्दर्यका मूलभूत प्रेरक तत्त्व वासना या काम है। फिर भी आचारांग और दर्शन से वंचित नहीं रह सकती। भोजन करते समय स्वाद को अस्वीकार आधुनिक मनोविज्ञान दोनों में वासना के मूलभूत प्रकार कितने हैं, नहीं किया जा सकता। अत: यह विचारणीय प्रश्न है कि इन्द्रिय-दमन इस सम्बन्ध में कोई निश्चित संख्या नहीं मिलती है। पाश्चात्य मनोविज्ञान के सम्बन्ध में क्या आचारांग का दृष्टिकोण आधुनिक मनोवैज्ञानिक में जहाँ फ्रायड काम या राग को ही एकमात्र मूल प्रेरक मानते हैं, दृष्टिकोण से सहमत है? आचारांग इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यही वहीं दूसरे विचारकों ने मूलभूत प्रेरकों की संख्या सौ तक मानी है। बात कहता है कि इन्द्रिय-व्यापारों के निरोध का अर्थ इन्द्रियों को अपने फिर भी पाश्चात्य मनोविज्ञान में सामान्यतया निम्न १४ मूल प्रवृत्तियाँ विषयों से विमुख करना नहीं, वरन् विषय-सेवन के मूल में जो निहित मानी गई हैं राग-द्वेष हैं उन्हें समाप्त करना है। इस सम्बन्ध में उसमें जो मनोवैज्ञानिक १. पलायनवृत्ति (भय) २. घृणा, ३. जिज्ञासा, ४. आक्रामकता दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है, वह विशेष रूप से द्रष्टव्य है। उसमें (क्रोध), ५. आत्मगौरव (मान), ६. आत्महीनता, ७. मातृत्व की कहा गया है कि यह शक्य नहीं कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या. संप्रेरणा, ८. समूह-भावना, ९. संग्रहवृत्ति, १०. रचनात्मकता, ११. बुरे शब्द सुने न जाएँ, अतः शब्दों का नहीं, शब्दों के प्रति जगने भोजनान्वेषण, १२. काम, १३, शरणागति और १४. हास्य (आमोद)। वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं कि आँखों आचारांगसूत्र में भय, जिज्ञासा, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, के सामने वाला अच्छा या बुरा रूप न देखा जाये अत: रूप का नहीं, आत्मीयता, हास्य आदि का यत्र-तत्र बिखरा हुआ उल्लेख उपलब्ध अपितु रूप के प्रति जागृत होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। है। इसके अतिरिक्त हिंसा के कारणों का निर्देश करते हुए कुछ कर्म- यह शक्य नहीं है कि नासिका के समक्ष आयी हुई सुगन्ध सूंघने में प्रेरकों का उल्लेख उपलब्ध है। यथा जीवन जीने के लिये, प्रशंसा न आए अतः गन्ध की नहीं, किन्तु गन्ध के प्रति आने वाले राग और मान-सम्मान पाने के लिए,जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए द्वेष की वृत्ति का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि जीभ तथा शारीरिक एवं मानसिक दुःखों की निवृत्ति-हेतु प्राणी हिंसा करता । पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने में न आये। अतः रस का है (१।१।४)। नहीं किन्तु रस के प्रति जागने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिये। यह शक्य नहीं है कि शरीर से सम्पर्क होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श आचारांग का सुखवादी दृष्टिकोण की अनुभूति न हो। अत: स्पर्श नहीं, किन्तु स्पर्श के प्रति जागने आधुनिक मनोविज्ञान हमें यह भी बताता है कि सुख सदैव अनुकूल वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिये (आचारांग २।१५।१०१-१०५)। इसलिए होता है कि उसका जीवन-शक्ति को बनाये रखने की दृष्टि उत्तराध्ययन में भी इसकी पुष्टि की गई है। उसमें कहा गया है कि से दैहिक मूल्य है और दुःख इसलिए प्रतिकूल होता है कि वह जीवन इन्द्रियों के मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ विषय आसक्त व्यक्ति के लिए शक्ति कास करता है। यही सुख-दुःख का नियम समस्त प्राणीय राग-द्वेष के कारण नहीं होते हैं। ये विषय रागी पुरुषों के लिए ही व्यवहार का चालक है। आचारांग भी प्राणीय व्यवहार के चालक के दुःख (बन्धन) के कारण होते हैं, वीतरागियों के बन्धन या दुःख का रूप में इसी सुख-दुःख के नियम को स्वीकार करता है (आचारांग, कारण नहीं हो सकते हैं। काम-भोग न किसी को बन्धन में डालते १।२।३)। अनुकूल के प्रति आकर्षण और प्रतिकूल के प्रति विकर्षण, हैं और न किसी को मुक्त ही कर सकते हैं, किन्तु जो विषयों में राग-द्वेष यह इन्द्रिय स्वभाव है। अनुकूल विषयों की ओर प्रवृत्ति, प्रतिकूल विषयों करता है, वही राग-द्वेष से विकृत होता है (उत्तराध्ययन ३२॥ से निवृत्ति यह एक नैसर्गिक तथ्य है, क्योंकि सुख अनुकूल और दुःख १००-१०१)। प्रतिकूल होता है। वस्तुतः प्राणी सुख को प्राप्त करना चाहता है और जैन-दर्शन के अनुसार साधना का सच्चा मार्ग औपशमिक नहीं दुःख से बचना चाहता है। वासना ही अपने विधानात्मक रूप में सुख वरन् क्षायिक है। औपशमिक मार्ग का अर्थ वासनाओं का दमन है। और निषेधात्मक रूप में दुःख का रूप ले लेती है, जिससे वासना इच्छाओं के निरोध का मार्ग औपशमिक मार्ग है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक की पूर्ति हो वही सुख और जिससे वासना की पूर्ति न हो अथवा की दृष्टि में यह दमन का मार्ग है, जबकि क्षायिक मार्ग वासनाओं वासना-पूर्ति में बाधा उत्पन्न हो वह दुःख। इस प्रकार वासना से ही के निरसन का मार्ग है। वह वासनाओं से ऊपर उठाता है। यह दमन सुख-दुःख के भाव उत्पन्न होकर प्राणीय व्यवहार का नियमन करने नहीं, अपितु चित्त-विशुद्धि है। दमन तो मानसिक गन्दगी को ढकने लगते है। मात्र में है और जैन-दर्शन इस प्रकार के दमन को स्वीकार नहीं करता। जैन-दार्शनिकों ने गुणस्थान प्रकरण में यह स्पष्ट रूप से बताया है दमन का प्रत्यय और आचारांग कि वासनाओं को दबाकर आने वाली साधना विकास की अग्रिम कक्षाओं सामान्यतया आचारांग में इन्द्रिय-संयम पर काफी बल दिया गया से अनिवार्यतया पदच्युत हो जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि है। वह तो शरीर को सुखा डालने की बात भी कहता है। लेकिन जैन-दर्शन भी आधुनिक मनोवैज्ञानिक के समान ही दमन को साधना प्रश्न यह है कि क्या पूर्ण इन्द्रिय-निरोध सम्भव है? आधुनिक मनोविज्ञान का सच्चा मार्ग नहीं मानता है। उसके अनुसार साधना का सच्चा मार्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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