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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व कृतित्व
श्रीयतीन्द्रसूरिजी, राजेन्द्रसूरिजी के उन विद्वान् शिष्यों में से एक हैं, जिन्होंने अपने गुरु के कार्यों को निष्ठापूर्वक आगे बढ़ाया। साधु जीवन में आपके केवल दो ही उद्देश्य थे - गुरुसेवा और अध्ययन। विद्या - व्यसनी होने के कारण आप गुरु के कृपापात्र शिष्य थे।
आचार्य देव राजेन्द्रसूरीश्वरजी ने देहत्याग के पूर्व 'अभिधानराजेन्द्रकोष' के सम्पादन और प्रकाशन का गुरुत्तर भार मुनि श्री दीप विजय (बाद में श्रीमद् भूपेन्द्रसूरीश्वरजी के नाम से विख्यात) एवं मुनिश्री यतीन्द्रविजय (बाद में श्रीमद् यतीन्द्र सूरीश्वरजी के नाम से विख्यात) को सौपा। उस समय यतीन्द्र विजयजी को दीक्षा लिए हुए केवल ९ वर्ष ही हुए थे। परन्तु आप और दीप विजयजी ने योग्यता, विद्वत्ता एवं परिश्रम से इस गुरुत्तर भार के स्वीकार कर विक्रम संवत् १९७८ में 'अभिधानराजेन्द्रकोष' के सातों भागों का सम्पादन और मुद्रण पूर्ण कर लिया जो अपने आप में अनूठी बात थी । यह आपकी साहित्य साधना, ,नियम पालन और दृढ़ प्रतिज्ञ होने का प्रमाण है।
विश्व विख्यात ‘अभिधानराजेन्द्रकोष' वर्ण-माला के अक्षरों में निम्नानुसार ७ भागों में विभक्त है
(१) अ - पृष्ठ १०२६ (२) आ - पृष्ठ ११९२ (३) इ से छ तक - पृष्ठ १३७९ (४) ज से न तक - पृष्ठ २७९६ (५) प से भ तक - • पृष्ठ १६३६ (६) म से व तक- पृष्ठ १४६६ (७) श से ह तक- पृष्ठ १२४४
विश्व के चोटी के इस संदर्भ ग्रंथ में जैन शास्त्रों, आगम कथा कोषों में प्रयुक्त समस्त प्राकृत शब्दों का संकलन है। प्रत्येक प्राकृत शब्द से प्रारम्भ और प्रसिद्ध हुई पुस्तक में कथा, कहानी, पुरुष, ग्राम, नगर, सूक्ति आदि अनेक बातों का विशद् साहित्यिक और ऐतिहासिक वर्णन है।
बागरा में श्रीमद् विजयधनचन्द्र सूरीश्वरजी की आज्ञा पाकर यतीन्द्रविजयजी व्याख्यानपीठ पर पधारे और जनप्रिय रोचक शैली में देशना प्रारम्भ की। सभा खचाखच भरी हुई थी। परन्तु व्याख्यान के दौरान एक भी व्यक्ति न तो उठा और न बोला। सम्पूर्ण सभा मंत्रमुग्ध होकर व्याख्यान सुनती रही । जनताजनार्दन को व्याख्यान द्वारा मंत्रमुग्ध करने के कारण व्याख्यान की समाप्ति के बाद आपको परम पूज्य चर्चा चक्रवर्ती आचार्य श्रीमद्विजय धन चन्द्रसूरीश्वरजी म. ने चतुर्विध श्रीसंघ की विशाल सभा में 'व्याख्यान वाचस्पति' की उपाधि से विभूषित किया । एक सफल जैनाचार्य के रूप में आपकी ओजस्वी एवं प्रभावशाली वाणी सदैव जनसभाओं में गूँजती रही और समाज का कल्याण करती रही। इस तरह 'व्याख्यानवाचस्पति' की उपाधि आपके लिए पूर्ण रूप से सार्थक है।
आप ने न केवल पालीताणा, गिरनार, अर्बुदगिरी, श्री मोहनखेड़ा, जैसलमेर, कच्छ भद्रेश्वर एवं गोड़वाड़ पंचतीर्थी आदि की संघसहित यात्राएँ कीं, अपितु इन संघ - यात्राओं का वर्णन श्री यतीन्द्र-विहार दिग्दर्शन भाग - १, २, ३, ४ और श्री कोरटाजी तीर्थ का इतिहास, मेरी नेमाड़ यात्रा, मेरी गोड़वाड़ यात्रा, श्री भाण्डवपुर तीर्थ, श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ आदि पुस्तकों में किया है।
इसके अलावा त्रिस्तुतिक की प्राचीनता, गौतमपृच्छा, सत्यबोध - भास्कर, गुणानुरागकुलक, जैनर्षिपट्टनिर्णय, श्री भाषणसुधा, समाधान- प्रदीप एवं "प्राग्वाट इतिहास" आदि अन्य प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। ये ग्रन्थ लिखकर आपने इतिहास - पुरातत्त्व की महान् सेवा की है। ये ग्रन्थ आपके इतिहासप्रेम को प्रदर्शित करते हैं। आपने मूर्तिलेख
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