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• यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ.- जैन आगम एवं साहित्य व्यवहार की टीका में भी भाष्यकार के नाम के बारे में कोई टीकाकार ने इस गाथा के लिए 'सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिभणितमिदम् । संकेत नहीं मिलता।
का उल्लेख किया है। चूर्णिकार ने इस गाथा के लिए 'आयरिओ पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने निशीथपीठिका की भास
क भासं काउकामो आदावेव गाथासूत्रमाह' का उल्लेख किया है। भमिका में अनेक हेतओं से यह सिद्ध किया है कि निशीथ
पोश यहाँ प्राचीनता की दृष्टि से चूर्णिकार का मत सम्यक् लगता है। भाष्य के कर्ता सिद्धसेन होने चाहिए। उन्होंने यह भी संभावना
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घाणकार 4
चूर्णिकार के मत की प्रासंगिकता का एक हेतु यह भी है कि व्यक्त की है कि बृहत्कल्पभाष्य के कर्ता भी सिद्धसेन है। अपने
व्यवहारभाष्य के अंत में भी 'कप्पव्ववहाराणं भासं का उल्लेख मत की पुष्टि के लिए वे कहते हैं कि अनेक स्थलों पर निशीथचूर्णि
मिलता है। अत: यह गाथा भाष्यकार की होनी चाहिए, जिसमें में जिस गाथा के लिए 'सिद्धसेणायरियो वक्खाणं करेति' का
उन्होंने प्रतिज्ञा की है कि मैं कल्प और व्यवहार की व्याख्यानउल्लेख है, वही गाथा बृहत्कल्प-भाष्य में भाष्यकारो व्याख्यानयति' विधि प्रस्तुत करूंगा। वक्खाणविधि शब्द भी भाष्य की ओर ही के संकेतपूर्वक है। अतः निशीथ, बृहत्कल्प एवं व्यवहार तीनों
___ संकेत करता है, क्योंकि नियुक्ति अत्यंत संक्षिप्त शैली में लिखी के भाष्यकर्त्ता सिद्धसेन हैं, यह स्पष्ट है। इसके साथ-साथ
गई रचना है। उसके लिए वक्खाणविहिं शब्द का प्रयोग नहीं उन्होंने और भी हेतु प्रस्तुत किए हैं।
होना चाहिए अत: यह नियुक्ति की गाथा नहीं, भाष्य की गाथा
होनी चाहिए। कप्पव्ववहाराणं भाष्यकार के इस उल्लेख से यह मुनि पुण्यविजयजी बृहत्कल्प के भाष्यकार के रूप में
स्पष्ट ध्वनित हो रहा है कि उन्होंने केवल बृहत्कल्प एवं व्यवहार संघदासगणि को स्वीकार करते हैं। उनके अभिमत से संघदास
पर ही भाष्य लिखा, निशीथ पर नहीं। गणि नाम के दो आचार्य हुए हैं। प्रथम संघदासगणि जो वाचकपद से विभूषित थे, उन्होंने वसुदेवहिंडी के प्रथम खण्ड की रचना
पंडित दलसुख भाई मालवणिया निशीथ- भाष्य के कर्ता की। द्वितीय संघदासगणि उनके बाद हुए, जिन्होंने बृहत्कल्प
सिद्धसेनगणि को स्वीकारते हैं, क्योंकि निशीथ-चूर्णिकार ने अनेक लघुभाष्य की रचना की। वे क्षमाश्रमण पद से अलंकृत थे।६
स्थलों पर 'अस्य सिद्धसेनाचार्यों व्याख्यां करोति' का उल्लेख
किया है। पर इस तर्क के आधार पर सिद्धसेन को भाष्यकर्ता आचार्य संघदासगणि भाष्य के कर्ता हैं इसकी पुष्टि में
मानना संगत नहीं लगता। क्योंकि चूर्णिकार ने ग्रन्थ के प्रारंभ सबसे बड़ा प्रमाण आचार्य क्षेमकीर्ति का निम्न उद्धरण है।
और अंतिम प्रशस्ति में कह । सिद्धसेन का उल्लेख नहीं किया उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है--
है। यदि सिद्धसेन भाष्यकर्ता होते तो अवश्य ही चूर्णिकार प्रारंभ कल्पेऽनल्पमनघु प्रतिपदमर्पयति योऽर्थनिकुरम्बम्।
में या ग्रन्थ के अंत में उनका नामोल्लेख अवश्य करते। इस श्रीसंघदासगणये, चिन्तामणये नमस्तस्मै।।
संबंध में हमारे विचार से निशीथ संकलित रचना होनी चाहिए, "अस्य च स्वल्पग्रन्थमहार्थतया दुःखबोधतया च सकल- जिसकी संकलना आचार्य सिद्धसेन ने की।अनेक स्थलों पर त्रिलोकीसुभगङ्करणक्षमाश्रमणनामधेयाभिधेयैः श्रीसंघदासगणिपूज्यैः निशीथ-नियुक्ति की गाथाओं को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने प्रतिपदप्रकटतिसर्वज्ञाज्ञाविराधनासमुद्भूतप्रभूतप्रत्यपायजालं व्याख्यान-गाथाएँ भी लिखीं। अतः निशीथ मौलिक रचना न निपुणचरणकरणपरिपालनोपायगोचरविचारवाचालं सर्वथा । होकर संकलित रचना ही प्रतीत होती है। यदि इसमें से अन्य दूषणकरणेनाप्यदूष्यं भाष्यं विरचयांचवे।"
ग्रन्थों की गाथाओं को निकाल दिया जाए तो मूल गाथाओं की इस उल्लेख के सन्दर्भ में मुनि पुण्यविजयजी का मत
संख्या बहुत कम रहेगी। दस प्रतिशत भाग भी मौलिक ग्रन्थ के
रूप में अवशिष्ट नहीं रहेगा। पंडित दलसुखभाई मालवणिया भी संगत लगता है कि बृहत्कल्प के भाष्यकार आचार्य संघदासगणि
इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहते हैं निशीथभाष्य के विषय होने चाहिए। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बृहत्कल्पभाष्य एवं व्यवहारभाष्य के कर्ता एक ही हैं, क्योंकि बृहत्कल्प
में कहा जा सकता है कि इन समग्र गाथाओं की रचना किसी -भाष्य की प्रथम गाथा में स्पष्ट निर्देश है कि 'कप्पव्ववहाराणं
एक आचार्य ने नहीं की। परंपरा से प्राप्त गाथाओं का भी यथास्थान वक्खाणविहिं पवक्खामि'।
भाष्यकार ने उपयोग किया है और अपनी ओर से नवीन गाथाएँ
बनाकर जोड़ी हैं। (निपीभू पृ. ३०, ३१) సాయం క రరరరరరసారం ..
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