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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
भाष्यकार ने इस ग्रन्थ की रचना कौशल देश में अथवा उसके पास के किसी क्षेत्र में की है, ऐसा अधिक संभव लगता है। भारत के १६ जनपदों में कौशल देश का महत्त्वपूर्ण स्थान था। प्रस्तुत भाष्य में कौशल देश से संबंधित दो-तीन घटनाओं का वर्णन है, इसके अतिरिक्त सबसे बड़ा प्रमाण यह है ग्रन्थकार जहाँ क्षेत्र के आधार पर मनोरचना का वर्णन कर रहे हैं, वहाँ कहते हैं 'कोसलएसु अपावं सतेसु एक्कं न पेच्छामो' अर्थात् कौशल देश में सैकड़ों में एक व्यक्ति भी पापरहित नहीं देखते हैं। यहाँ पेच्छामो क्रिया ग्रन्थकार द्वारा स्वयं देखे जाने की ओर इंगित करती है।
भाष्य का रचनाकाल
भाष्यकार संघदासगणि का समय भी विवादास्पद है। अभी तक इस दिशा में विद्वानों ने विशेष ऊहापोह नहीं किया है। संघदासगणि आचार्य जिनभद्र से पूर्ववर्ती हैं। इस मत की पुष्टि में अनेक हेतु प्रस्तुत किए जा सकते हैं-
जिनभद्रगणि के विशेषणवती ग्रन्थ में निम्न गाथा मिलती हैसीहो चेव सुदाढो, जं रायगिहम्मि कविलबडुओ त्ति । सीसइ ववहारे गोयमोवसमिओ स णिक्खंतो।'
व्यवहार भाष्य में इसकी संवादी गाथा इस प्रकार मिलती हैसीहो तिविट्ठ निहतो, भमिउं रायगिह कविलबडुग त्ति । जिणवीरकहणमणुवसम गोतमोवसम दिखाय । ०
विशेषणवती में 'ववहारे' शब्द निश्चित रूप से व्यवहारभाष्य के लिए प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि मूलसूत्र में इस कथा का कोई उल्लेख नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य जिनभद्रगणि के समक्ष व्यवहारभाष्य था ।
विशेषावश्यक भाष्य की रचना व्यवहारभाष्य के पश्चात् हुई इसका एक प्रबल हेतु यह है कि बृहत्कल्प एवं व्यवहारभाष्य कर्त्ता के समक्ष यदि विशेषावश्यक भाष्य होता तो वे अवश्य विशेषावश्यकभाष्य की गाथाओं को अपने ग्रन्थ में सम्मिलित करते, क्योंकि वह एक आकरग्रंथ है, जिसमें अनेक विषयों का सांगोपांग वर्णन प्राप्त है। जबकि व्यभा एवं वृभा में अन्य भाष्य पंचकल्प, निशीथ आदि की सैकड़ों गाथाएँ संवादी हैं । व्यवहारभाष्य की मणपरमोधपुलाए गाथा विभा में मिलती है । वह व्यवहारभाष्य की गाथा है और विशेषावश्यकभाष्य के कर्त्ता
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ने उद्धृत की है, ऐसा प्रसंग से स्पष्ट प्रतीत होता है। अतः व्यवहारभाष्य विशेषावश्यकभाष्य से पूर्व की रचना है, ऐसा मानने में कोई आपत्ति प्रतीत नहीं होती ।
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व्यवहारभाष्य के कर्त्ता जिनभद्र से पूर्व हुए इसका एक प्रबल हेतु यह है कि जीतकल्प- चूर्णि में स्पष्ट उल्लेख है कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि में प्रायश्चित्त का इतने विस्तार से निरूपण है कि पढ़ने वाले का मति- विपर्यास हो जाता है। शिष्यों की प्रार्थना पर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने संक्षेप में प्रायश्चित्तों का वर्णन करने हेतु जीतकल्प की रचना की " । यहाँ कल्प, व्यवहार शब्द का मूलसूत्र से तात्पर्य न होकर उसके भाष्य की ओर संकेत होना चाहिए क्योंकि मूल ग्रन्थ परिमाण में इतने बृहद् नहीं हैं। दूसरी बात व्यवहारभाष्य की प्रायश्चित्त संबंधी अनेक गाथाएँ जीतकल्प में अक्षरशः उद्धृत हैं। जैसे-
जीतकल्प
व्यभा.
जीतकल्प
व्यभा.
११०
२२
११४
१११
३१,३२
तु. १०,११ निशीथभाष्य जिनभद्रगणि से पूर्व संकलित हो चुका था इसका एक प्रमाण यह है कि निभा में प्रमाद-प्रतिसेवना के सन्दर्भ में निद्रा का विस्तृत वर्णन मिलता है। स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदाहरण के रूप में निभा. (१३५) में 'पोग्गल मोयग दंते' गाथा मिलती है। यह गाथा विशेषावश्यक भाष्य (२३५) में भी है। लेकिन वहाँ स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि व्यञ्जनावग्रह के प्रसंग में विशेषावश्यक-भाष्यकार ने यह गाथा निभा. से उद्धृत की है। विभा में यह गाथा प्रक्षिप्त सी लगती है । कुछ अंतर के साथ यह गाथा वृभा. (५०१७) में भी मिलती है।
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पंडित दलसुख भाई मालवणिया ने जिनभद्र का समय छठी-सातवीं शताब्दी सिद्ध किया है। अतः भाष्यकार संघदासगणि का समय पाँचवीं, छठी शताब्दी होना चाहिए ।
भाष्यग्रन्थों का रचनाकाल चौथी से छठी शताब्दी तक ही होना चाहिए। यदि भाष्य का रचनाकाल सातवीं शताब्दी माना जाए तो आगे के व्याख्याग्रन्थों के काल-निर्धारण में अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं। प्राचीनकाल में आज की भाँति मुद्रण की व्यवस्था नहीं थी, अतः हस्तलिखति किसी भी ग्रन्थ को प्रसिद्ध होने में कम से कम एक शताब्दी का समय तो लग ही
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1 64 Jan G
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