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भाष्यकार : एक परिशीलन
समणी कुसुमप्रज्ञा....
आगमों के व्याख्या-ग्रंथों में भाष्य का दूसरा स्थान है। बिंदुरूप या नवनीत रूप सार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । इस व्यवहारभाष्य,गाथा ४६९३ में भाष्यकार ने अपनी व्याख्या को उद्धरण से स्पष्ट है कि जिनभद्रगणि के समक्ष तीनों छेदसूत्रों के भाष्य नाम से संबोधित किया है। नियुक्ति की रचना अत्यन्त भाष्य थे। उदधिसदृश विशेषण मूल सूत्रों के लिए प्रयुक्त नहीं हो संक्षिप्त शैली में है। उसमें केवल परिभाषिक शब्दों पर ही विवेचन सकता, क्योंकि वे आकार में इतने बड़े नहीं हैं। या चर्चा मिलती है। किन्तु भाष्य में मल आगम तथा नियुक्ति
जिन ग्रन्थों पर नियुक्तियाँ नहीं हैं वे भाष्य मूल सूत्र की व्याख्या दोनों की विस्तृत व्याख्या की गई है।
ही करते हैं। जैसे जीतकल्प भाष्य आदि। कुछ भाष्य नियुक्ति पर वैदिक परंपरा में भाष्य लगभग गद्य में लिखा गया लेकिन भी लिखे गए हैं जैसे - पिंडनियुक्ति एवं ओघनियुक्ति आदि। जैन परंपरा में भाष्य प्रायः पद्यबद्ध मिलते हैं, जिस प्रकार
छेदसत्रों के भाष्यों में व्यवहारभाष्य का महत्त्वपूर्ण स्थान नियुक्ति के रूप में मुख्यतः १० नियुक्तियों के नाम मिलते हैं
है। प्रायश्चित्त निर्धारक ग्रन्थ होने पर भी इसमें प्रसंगवश समाज, वैसे ही भाष्य भी १० ग्रन्थों पर लिखे गए, ऐसा उल्लेख मिलता
अर्थशास्त्र, राजनीति, मनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का विवेचन है। वे ग्रन्थ ये हैं--
मिलता है। भाष्यकार ने व्यवहार के प्रत्येक सूत्र की विस्तृत १. आवश्यक', २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. व्याख्या प्रस्तुत की है। बिना भाष्य के केवल व्यवहारसूत्र को बृहत्कल्प', ५. पंचकल्प, ६. व्यवहार, ७. निशीथ, ८. जीतकल्प, पढ़कर उसके अर्थ को हृदयंगम नहीं किया जा सकता है। ९. ओघनियुक्ति, १०. पिंडनियुक्ति।
थाष्यकार ___ मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार व्यवहार और निशीथ पर
भाष्यकार के रूप में मख्यतः दो नाम प्रसिद्ध हैंभी वृहद्भाष्य लिखा गया पर आज वह अनुपलब्ध है। इनमें
१.जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, २. संघदासगणि। मुनिश्री पुण्यविजयजी बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ इन तीन ग्रन्थों के भाष्य गाथा
ने चार भाष्यकारों की कल्पना की है- १. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, परिमाण में वृहद् हैं। जीतकल्प, विशेषावश्यक एवं पंचकल्प
२.संघदासगणि, ३. व्यवहारभाष्य के कर्ता तथा ४.बृहदकल्पभाष्य परिमाण में मध्यम, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति पर लिखे गए
आदि के कर्ता। भाष्य अल्प तथा दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन इन दो ग्रन्थों के भाष्य ग्रन्थान में अल्पतम है।
विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता के रूप में जिनभद्रगणि का
नाम सर्वसम्मत है, लेकिन बृहत्कल्प, व्यवहार आदि भाष्यों के यह भी अनुसंधान का विषय है कि तीन छेदसत्रों पर ।
कर्ता के बारे में सभी का मतैक्य नहीं है। प्राचीनकाल में लेखक वृहद्भाष्य लिखे गए फिर दशाश्रुतस्कंध पर क्यों नहीं लिखा
बिना नामोल्लेख के कृतियाँ लिख देते थे। कालान्तर में यह गया, जबकि नियुक्ति चारों छेदसत्रों पर मिलती है। संभव है इस ग्रन्थ पर भी भाष्य लिखा गया हो पर वह आज प्राप्त नहीं है।
निर्णय करना कठिन हो जाता था कि वास्तव में मूल लेखक
कौन थे? कहीं-कहीं नामसाम्य के कारण भी मूल लेखक का उपर्यक्त दस भाष्यों में निशीथ, जीतकल्प एवं पंचकल्प को निर्णय करना कठिन होता है। संकलनप्रधान भाष्य कहा जा सकता है। क्योंकि इनमें अन्य भाष्यों एवं नियुक्तियों की गाथाएँ ही अधिक संक्रांत हुई हैं। जीतकल्प
बृहत्कल्प की पीठिका में मलयगिरि ने भाष्यकार का
नामोल्लेख न कर केवल "सुखग्रहणधारणाय भाष्यकारो भाष्यं भाष्य में तो जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण स्पष्ट लिखते हैं--कल्प, व्यवहार और निशीथ उदधि के समान विशाल हैं, अत: उन श्रतरत्नों का कृतवान्", इतना सा उल्लेख मात्र किया है। निशीथचूर्णि एवं
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