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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ का अभाव है, अतः वे सभी रचनाएँ तत्त्वार्थ के बाद की कृतियों मानी जा सकती हैं। इसी प्रकार कषायप्राभूत, षट्खण्डागम, गोम्मटसार आदि शौरसेनी आगम-ग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त की जो गहन चर्चा है, वह भी अर्धमागधी आगम - साहित्य में अनुपलब्ध है। अतः शौरसेनी आगमों की अपेक्षा अर्धमागधी आगमों की सरल, बोधगम्य एवं प्राथमिक स्तर की विवरणात्मक शैली उनकी प्राचीनता की सूचक है।
जैन आगम एवं साहित्य
के पन्द्रहवें शतक में मंखली गोशाल की समालोचना भी की गई है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जैन-परम्परा में अन्य परम्पराओं के प्रति उदारता का भाव कैसे परिवर्तित होता गया और साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढमूल होते गये, इसका यथार्थ चित्रण उनमें उपलब्ध हो जाता है। इसी प्रकार आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध, आचारचूला, दशवैकालिक, निशीय आदि छेदसूत्र तथा उनके भाष्य और चूर्णियों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार में कालक्रम में क्या-क्या परिवर्तन हुआ है। इसी प्रकार ऋषिभाषित उत्तराध्ययन, भगवती, ज्ञाताधर्म कथा आदि के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि पार्श्वापत्यों का महावीर के संघ पर क्या प्रभाव पड़ा और दोनों के बीच सम्बन्धों में कैसे परिवर्तन होता गया। इसी प्रकार के अनेक प्रश्न जिनके कारण आज का जैन समाज साम्प्रदायिक कटघरों में बन्द है, अर्धमागधी आगमों के निष्पक्ष अध्ययन के माध्यम से सुलझाये जा सकते हैं। शौरसेनी आगमोंमें मात्र मूलाचार और भगवती आराधना को जो अपनी विषय-वस्तु के लिये अर्धमागधी आगम साहित्य के ऋणी हैं, इस कोटि में रखा जा सकता है, किन्तु शेष आगमतुल्य शौरसेनी ग्रन्थ जैनधर्म को सीमित घेरों में आबद्ध ही करते हैं।
तथ्यों का सहज संकलन
अर्धमागधी आगमों में तथ्यों का सहज संकलन किया गया है। अतः अनेक स्थानों पर सैद्धान्तिक दृष्टि से उनमें भिन्नताएं भी पायी जाती हैं। वस्तुतः ये ग्रन्थ अकृत्रिम भाव से रचे गये हैं और उनके सम्पादन काल में भी संगतियुक्त बनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। एक ओर उत्सर्ग की दृष्टि से उनमें अहिंसा की सूक्ष्मता के साथ पालन करने के निर्देश हैं तो दूसरी ओर अपवाद की अपेक्षा से ऐसे अनेक विवरण भी हैं जो इस सूक्ष्म अहिंसक जीवनशैली के अनुकूल नहीं हैं। इसी प्रकार एक ओर उनमें मुनि की अचेलता का प्रतिपादन समर्थन किया गया है, तो दूसरी ओर वस्त्र पात्र के साथ-साथ मुनि के उपकरणों की लम्बी सूची भी मिल जाती है। एक ओर केशलोच का विधान हैं तो दूसरी ओर क्षुर-मुण्डन की अनुशा भी है। उत्तराध्ययन में वेदनीय के भेदों में क्रोध- वेदनीय आदि का उल्लेख है, जो कि कर्मसिद्धान्त के अन्थों में यहाँ तक कि स्वयं उत्तराध्ययन के कर्मप्रकृति नामक अध्ययन में भी अनुपलब्ध है। उक्त साक्ष्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्धमागधी आगम-साहित्य जैन संघ का निष्पक्ष इतिहास प्रस्तुत करता है। तथ्यों का यथार्थ रूप में प्रस्तुतीकरण उसकी अपनी विशेषता है। वस्तुतः तथ्यात्मक विविधताओं एवं अन्तर्विरोधों के कारण अर्धमागधी आगम- साहित्य के ग्रन्थों के काल-क्रम का निर्धारण भी सहज हो जाता है।
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अर्धमागधी आगम: शौरसेनी आगम और परवर्ती महाराष्ट्री व्याख्यासाहित्य के आधार
अर्धमागधी- आगम शौरसेनी आगम और महाराष्ट्री- आगमिक व्याख्या - साहित्य के आधार रहे हैं। अर्धमागधी आगमों की व्याख्या के रूप में क्रमशः निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टब्बा आदि लिखे गये हैं. ये सभी जैनधर्म एवं दर्शन के प्राचीनतम स्रोत है। यद्यपि शौरसेनी आगम और व्याख्य माहित्य में चिन्तन के विकास के साथ-साथ देश, काल और सहगामा परम्पराओं के प्रभाव से बहुत कुछ ऐसी सामग्री भी है, जो उनकी अपनी मौलिक कही जा सकती है फिर भी अर्धमागधी आगमों को उनके अनेक ग्रन्थों के मूलस्रोत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। मात्र मूलाचार में ही तीन सौ से अधिक गाथाएँ उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आवश्यकनियुक्ति, जीवसमास, आतुरप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक (चन्दावेज्झय) आदि में उपलब्ध होती हैं। इसी प्रकार भगवती आराधना में भी अनेक गायाएँ अर्धमागधी आगम और विशेष रूप से प्रकीर्णकों (पहचा) से मिलती है। षट्खण्डागम और प्रज्ञापना में भी जो समानताएँ परिलक्षित होती हैं, उनकी विस्तृत चर्चा पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने (प्रो. ए. एन. उपाध्ये व्याख्यानमाला में) की है। नियमसार की कुछ गाथाएँ अनुयोगद्वार एवं इतर आगमों में भी पाई जाती हैं, जबकि समयसार आदि कुछ ऐसे शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थ भी हैं, जिनकी मौलिक रचना का श्रेय उनके कर्ताओं को ही है। तिलोयपत्रत्ति का प्राथमिक रूप विशेष रूप से आवश्यकनियुक्ति तथा कुछ प्रकीर्णकों के आधार पर तैयार हुआ था, यद्यपि बाद में उसमें पर्याप्त रूप से परिवर्तन और परिवर्धन किया गया है। इस प्रकार शौरसेनी आगमों के निष्पक्ष अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनका मूल आधार अर्धमागधी आगम साहित्य ही रहा है तथापि १६२]
अर्थमागधी आगमों में जैनसंघ के इतिहास का प्रामाणिक रूप
यदि हम अर्धमागधी आगमों का समीक्षात्मक दृष्टि से अध्ययन करें, तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन- परम्परा के आचार एवं विचार में देश-कालगत परिस्थितियों के कारण कालक्रम में क्या-क्या परिवर्तन हुए इसको जानने का आधार अर्धमागधी आगम ही है, क्योंकि इन परिवर्तनों को समझने के लिए उनमें उन तथ्यों के विकास क्रम को खोजा जा सकता है। उदाहरण के रूप में जैनधर्म में साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढ़-मूल होता गया इसकी जानकारी ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग और भगवती के पन्द्रहवें शतक के समीक्षात्मक अध्ययन से मिल जाती है। ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल, असितदेवल, नारायण, याज्ञवल्क्य, बाहुक आदि ऋषियों को अर्हत् ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है। उत्तराध्ययन में भी कपिल, नमि, करकण्डु, नागति, गर्दभाली, संजय आदि का सम्मानपूर्वक स्मरण किया गया और सूत्रकृतांग में इनमें से कुछ को आचारभेद के बावजूद भी परम्परा सम्मत माना गया। किन्तु ज्ञाताधर्मकथा में नारद की और भगवती
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