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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म मनुष्य के बत्तीस उत्तम लक्षणों की गणना में विभिन्न ग्रंथों लक्षणों की दृष्टि से तीर्थंकरों का शरीर श्रेष्ठ माना जाता है। में थोड़ा अंतर है। गुण की दृष्टि से इस प्रकार ३२ लक्षण गिनने में शुभकर्म के उदय से वे उत्तम लक्षण प्राप्त करते हैं। आत हैं। गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने अभिधानराजेन्द्रकोष
बत्तीसा अट्ठसयं, अट्ठसहस्सं व बहुतराईं च। के छठे भाग में पृष्ठ ५९५ पर लिखा है
देहेसु देहीणं लक्खणाणि सुभकम्म जाणिताणि। इह भवति सप्तरक्तः षडुन्नत : पञ्चसूक्ष्मदीर्घश्च।
ये सब देह के बाह्य लक्षण हैं, स्वभाव अथवा प्रकृति के त्रिविपुललघुगम्भीरो, द्वात्रिंशल्लक्षणः स पुमान्।
लक्षण आभ्यंतर लक्षण हैं। इनकी विविधता का कोई पार नहीं है। तत्र सप्त रक्तानि- १. नख २. चरण ३. हस्त ४. जिह्वा ५. ओष्ठ ६. तालु,
दुविहा या लक्खणा खलु अब्भंतर बाहिर उ देहीणम्। ७. नेत्रान्ताः । षडुब्रतानि- १. कक्षा २. हृदयं ३. ग्रीवा ४. नासा ५. नखा ६. मुखं च।
बाहिया सुर वण्णाइ अंतो सब्भाव सत्ताई। पञ्चसूक्ष्माणि- १. दन्ता २. त्वक् ३. केशा ४. अंगुलिपर्वाणि ५. नखाश्च
बाह्य लक्षणों के अंगभूत और अंगबाह्य ये दो प्रकार होते पञ्चदीर्घाणि- १. नयने २. हृदयम्. ३. नासिका ४. भुजौ च
हैं। शरीर में रहे हुए और सामान्य रीति से जिन्हें निकाला न जा त्रीणि विस्तीर्णानि- १.भालम् २. उरः ३. वदनं च। त्रीणि लघुनि- १.ग्रीवा २. जंघा ३.मेहनं च।
सके ऐसे लक्षण अंगभूत हैं तथा वस्त्राभूषण इत्यादि द्वारा दृष्ट त्रीणि गम्भीराणि १.सत्वम् २. स्वरः ३. नाभिश्च।
लक्षण अंगबाह्य कहलाते हैं। सेना के सैनिकों, साधु सन्यासियों, १. नख २. हाथ. ३. पैर, ४. जीभ ५. ओठ.६. तालु ७. अस्पताल के डाक्टर, नसों आदि का परिचय उनके गणवेश - नेत्र के कोण ये सात लाल वर्ण के; ८. कांख, ९.वक्षस्थल, १० लक्षणों से हो जाता है, परन्तु वे बदले या निकाले जा सकते हैं गर्दन, ११. नासिका, १२. नख, १३ मूंछ ये छः ऊँचे; १४. दाँत, ऐसे लक्षण हैं। मूंछ, दाढ़ी, नख, मस्तक के बाल आदि अंगभूत १५. त्वचा, १६. बाल १७. अंगुलि के टेरवे १८. नाखून ये पाँच लक्षणों में भी फेरबदल हो सकता है। छोटे व पतले; १९. आंखें, २०. हृदय . २१. नाक, २२-२३ भुजा तीर्थंकर का सर्वश्रेष्ठ अंगभूत अर्थ, भाव तथा जीवन की -द्वय ये पाँच लम्बे; २४. ललाट, २५ छाती २६. मुख ये तीन दष्टि से सर्वथा अनरूप ऐसा कोई एक लक्षण लांछन के नाम से विशाल; २७, डोक, २८. जाँघ, २९. पुरुषचिह्न ये तीन लघु और
जाना जाता है। सभी लक्षणों को लांछन के रूप में नहीं देखा जा ३० सत्व ३१. स्वर, ३२. नाभि ये तीन गंभीर हों तो ऐसे बत्तीस
सि सकता है।
का लक्षणों वाला पुरुष श्रेष्ठ व भाग्यशाली माना जाता है।
अभिधानचिंतामणि की स्वोपज्ञ टीका में श्री हेमचन्द्राचार्य शरीर के अंगोपांगों में स्थित बत्तीस मंगल आकृतियों से
सूरि द्वारा बताये अनुसार तीर्थकरों के लांछन शरीर के दक्षिण बत्तीसलक्षणा पुरुष कहलाता है। वे इस प्रकार हैं - १. छत्र २. (दायें) भाग में होते हैं। आवश्यकनियुक्ति में गाथा १०८० में कमल ३. धनुष ४. रथ ५. वज्र ६. कछुआ, ७. अंकुश, ८. कहा गया है कि ऋषभदेव भगवान की दोनों जंघाओं पर वृषभ बावड़ी, ९.स्वस्तिक, १०. तोरण ११. सरोवर, १२. पंचानन, १३ का चित था इसलिए वे वषजिन के नाम से जाने जाते हैं और वृक्ष, १४. शंख, १५, चक्र, १६.हाथी, १७.समुद्र, १८. कलश,
उनकी माता को प्रथम वृषभ के दर्शन हुए थे। १९. महल, २०. मत्स्य-युगल, २१. जव २२. यज्ञ स्तंभ,
तीर्थकर की देह पर लांछन उनके नामकर्मानुसार होते हैं। २३ स्तूप, २४. कमंडलु, २५. पर्वत २६.चामर, २७.दर्पण,
तदुपरांत वह लांछन उनकी प्रकृति को बताने वाले प्रतिनिधि के २८. उक्षा २९. पताका, ३०. लक्ष्मी ३१. माला, ३२.मोर।
रूप में गिना जाता है। लांछन बैल, हाथी, घोड़ा, सिंह, मगरमच्छ, शरीर के अंगोपांगों में जितने अधिक उत्तम लक्षण हों. बंदर. महिष, गैंडा, हिरन आदि पशुओं के; क्रौंच, बाज, बगैरह उतना वह भाग्यशाली माना जाता है। अधिकतम १००८ उत्तम
पक्षियों के; सूर्य-चंद्र जैसे ज्योतिष्कों के स्वस्तिक नन्दावर्त, लक्षणों की गणना की जाती है। ऐसे उत्तम लक्षण जिसमें होते हैं
कमल, कलश, शंख आदि मंगल रूप माने जाने वाले प्रतीकों वह व्यक्ति श्रेष्ठतर, श्रेष्ठतम गिना जाता है। जैसे मान्यतानुसार
आदि विविध प्रकार के होते हैं। इन समस्त लांछनों का स्वयं का बलदेवों वासुदेवों में १०८ और चक्रवर्ती और तीर्थकरों में ।
कोई उत्कृष्ट गुण होता है। यह उत्कृष्ट गुण अनंत गुणधारक तीर्थंकर १००८ उत्तम लक्षण होते हैं।
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