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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्य : व्यक्तित्व-कृतित्व . -
इतिहासज्ञ आचार्यदेव
मुनिराजश्री लेखेन्द्र विजयजी....
राजस्थान के धौलपुर में जन्म लिया, भोपाग में मामा के घर रहे और मामा के कटु वचन सुनकर घर छोड़ दिया। घर छोड़ना एक नए अध्याय की शुरूआत थी। जब किसी घटना का अंत होता है तो वह अंत नवीन घटना के लिए होता है। आचार्यदेव का अपने कार्यकाल में घर से निकल जाना कुछ लोगों के लिए दुःख का विषय इसलिये रहा होगा कि अब वह यह क्या खायेगा? कहाँ रहेगा ऐसा लोगों का सोच सही हो सकता है किंतु दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो आने वाला काल एक नया संदेश लेकर आता है। यही आचार्य देव के साथ भी हुआ।
भोपाल से उज्जैन होते हुए आप महिदपुर पहुंच गए और वहाँ युगप्रधान आचार्य भगवन् श्रीमद् विजयराजेन्द्र सूरीश्वर जी म. की सेवा में जा पहुँचे। कालांतर में उनके करकमलों से दीक्षित होकर मुनि यतीन्द्रविजय जी म. हो गए। यह भी एक इतिहास ही है।
सामान्यतः कई लोग इतिहास को एक शुष्क विषय मानते हैं। कारण यह कि इसमें राजाओं का विवरण पढ़ना पड़ता है। कौन राजा कब से कब तक रहा? कितने युद्ध किये आदि किन्तु केवल यही इतिहास नहीं है। इतिहास का अर्थ है इति + हास = ऐसा हुआ। फिर वह किसी भी क्षेत्र में हुआ हो। इतिहास को केवल राजा और युद्ध तक सीमित रखना उस विषय के साथ अन्याय करना है। इतिहास में राजनीति के साथ सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, दार्शनिक, साहित्यिक, कलात्मक आदि सभी बातों का समावेश होता है, तब कहीं बनता है समग्र इतिहास। ऐसे इतिहास का अध्ययन करने तथा लेखक हुए तो लिखने आदि में जो आनन्दानुभूति होती है उसको वर्णन शब्दों में कर पाना सम्भव प्रतीत नहीं होता।
साधु किसी भी धर्म से सम्बन्धित क्यों न हो, उसकी रुचि इतिहास की ओर कम ही रहती है। इसका प्रमुख कारण तो यह है कि उसका मूल लक्ष्य अपनी साधना की ओर रहता है। अपने आध्यात्मिक लक्ष्य का त्याग कर वह इतिहास की ओर उन्मुख क्यों होने लगा। फिर भी कुछ साधु भगवन् ऐसे होते हैं जो अपने धर्म के इतिहास को प्रकाश में लाने का प्रयास करते हैं। अपने तीर्थों के इतिहास में अपने मंदिरों और प्रतिमाओं के कलापक्ष का उद्घाटन करते हैं। ऐसा करने में उनका उद्देश्य कुछ भी रहा हो किंतु वे अनजाने में ही इतिहास का एक बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित कर देते हैं।
आचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. को इतिहास से कुछ लगाव था। अपनी इसी लगन के परिणाम स्वरूप आपने जैन इतिहास के कुछ पक्षों पर साधिकार लिखा है। यह तथ्य सर्वविदित है कि जैन साधु पादविहारी होते हैं।
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